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Showing posts from August, 2017
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स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः। स्वकर्मनिरतः सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ॥18/45॥ : अपने-अपने स्वाभाविक कर्मों में तत्परता से लगा हुआ मनुष्य भगवत्प्राप्ति रूप परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है,,,,,,,,,,,,,,,,,,,अपने स्वाभाविक कर्म में लगा हुआ मनुष्य जिस प्रकार से कर्म करके परमसिद्धि को प्राप्त होता है, उस विधि को तू सुन॥18/45॥ भक्ति मार्ग में चल रहे लोग भी सबको अकर्मण्य दिखाई देते हैं | नाचते गाते इस्कोन वाले आपको मुफ्तखोर नजर आते हैं ------------जबकि वे भी कर्म कर रहे होते हैं .............. यही कारण है कि वे दिन रात सुखी व प्रसन्न दिखाई देते हैं ............. उनकी सभी आवश्यकताएं पूरी होती चली जाती हैं सनातन सिद्धांत के अनुसार | एक उदाहरण देती हूँ यहाँ महर्षि रमण का _________________ महर्षि रमण जब घर से नौ दस वर्ष की आयु में भागे, तब उनके तन पर मात्र एक कपड़ा था ........... लेकिन कुछ समय बाद वह भी फट कर टुकड़ा मात्र रह गया जिसे उन्होंने कमर में बाँध लिया ........... एक मंदिर में जाकर वे ध्यान पर बैठ गये .......... लोगों ने मजाक उड़ाया, तरह तरह से परेशान किया, लेकिन उनकी ज...
ईश्वर ने कोई भी ऐसी रचना नहीं की है जो व्यर्थ हो, जिसका कोई योगदान न हो या जो कोई कर्म न कर रहा हो | प्रत्येक प्राणी अपना अपना कर्म कर रहे हैं एक मच्छर भी आपकी नजर में दुनिया पर बोझ हो सकता है | क्योंकि वह केवल आपका खून चूस कर जी रहा है तो वह भी आपकी बहुत बड़ी भूल है | वह अपने प्राणों की बाजी लगाकर वह महत्पूर्ण कार्य कर रहा होता है, जो कोई और नहीं कर सकता | आइये कुछ ऐसी ही बातों पर पहले ध्यान देते हैं: हम ध्यान दें तो दिन भर हम अपने शरीर के कई अंगों को बिलकुल भूल जाते हैं | म च्छर उन अंगों को अपना डंक मारकर आपका ध्यान उस स्थान पर केन्द्रित करवाता है | इसके बदले उसे अपने तुच्छ जीवन से मुक्ति भी मिल जाती है यदि आपका हाथ सही निशाने पर पड़ा | भिखारी आपकी नजर में कोई कर्म करता हुआ नजर नहीं आता | लेकिन जरा आप उनकी जिंदगी जी कर देखें, तो पता चल जाएगा कि कर्म किसे कहते हैं | वे दुनिया भर की गालियाँ सुनते हैं, तिरस्कार सहते हैं केवल इसलिए ताकि आपको मानसिक शान्ति मिल सके | आपने अनुभव किया होगा कि जब किसी को गाली दे देते हैं, किसी की निंदा कर लेते हैं तो बहुत बड़ा बोझ मन से उतर गया ऐसा अनुभव होता ...
आजकल कर्मयोगियों की भरमार हो गयी है | ऐसा लग रहा है जैसे मक्खियों मच्छरों से अधिक कर्मयोगी ही इस दुनिया में पैदा हो गये | ये कर्मयोगी इतनी अकड़ में हैं बहुसंख्यक होने के कारण कि भक्ति-मार्गियों, ज्ञान-मर्गियों को भिखारी कहने से भी नहीं चूकते | कई बार सुनने में आता है कोई कहता है, “इन भिखमंगों से देश को आजाद करवाए बिना देश का भला नहीं हो सकता | ये लोग मुफ्त की रोटियां तोड़ते हैं कोई मेहनत वगैरह नहीं करते |” वास्तव में कर्मयोगियों, नास्तिकों की जनसँख्या बढ़ने के कारण भारत को चीन बना देने की वकालत करने लगे | इन कूपमंडूक नास्तिकों, कर्मयोगियों और धार्मिकों में कोई अंतर नहीं है | जहाँ कूपमण्डूक धार्मिकों को सत्ता मिल जाती है वहां वे सभी पर अपनी मूढ़ता, पाखण्ड और ढोंग थोपना शुरू कर देते हैं | उन्हें नास्तिकों से एलर्जी हो जाती है | फिर दो पंथ ही आपस में मिलकर नहीं रह सकते, दो भिन्न विचारों के धार्मिक ही आपस में मिलकर नहीं रह सकते | कहीं शैव और वैष्णव आपस में उलझे रहते थे तो कहीं शिया और सुन्नी | सभी के अपने अपने संगठन हैं और सभी इसी भ्रम में जी रहे हैं कि उनका कुनबा  ही श्रेष्ठ है और ...
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असली साधू संन्यासियों की पहचान  साधू संन्यासियों को मुक्त ही रहने दें | वे मुक्त रहेंगे, तभी समाज को कोई दिशा दे पाएंगे | वे मुक्त रहेंगे, तभी उनमें से कोई बुद्ध बन पायेगा कोई महावीर बन पायेगा | उन्हें किताबी धार्मिकता के बंधन में बाँधने की यदि कोशिश करेंगे तो परम्परावादी साधू-समाज तैयार हो जाएगा | और जब साधुओं का समाज बन जाएगा तब पाखण्ड और ढोंग भी बढेगा ही क्योंकि तब साधू संन्यासी बनना एक कर्मकांड, परम्परा मात्र बनकर रह जायेगा | यह बिलकुल वैसी ही स्थिति हो जाएगी जैसे कि ...........सब कुछ लिखा हुआ मिल जायेगा कि ऐसे उठो, ऐसे चलो, ऐसे पहनो, ऐसे खाओ तो साधू संन्यासी |  कोई भी एक्टिंग शुरू कर देगा और मौलिक साधू संन्यासी आप नहीं ख़ोज पाएंगे इन धूर्त पाखंडियों के बीच में |क्योंकि नकल हमेशा असल से बेहतर दिखते हैं |और समाज हमेशा नकली और आसानी से उपलब्ध होने वाली चीजों के प्रति ही आकर्षित होता है | असली साधू संतों को परखने का न तो सही मानदण्ड है कोई और न ही मानदण्ड लेकर न जाएँ | केवल साधू संतों को देखें, उनसे चर्चा करें और यदि वे आपके मन-माफिक हैं तो उनसे जुड़ें ज्ञान लें | यदि...
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एक शब्द है बलात्कार जिसका अर्थ होता है बल पूर्वक किया गया अत्याचार या शोषण | लेकिन समय के साथ बलात्कार को केवल स्त्री की इच्छा के विरुद्ध किया जाने वाला यौनचार तक सीमित कर दिया गया | इसी प्रकार का शब्द है धर्म | धर्म एक व्यापक नियम व जिम्मेदारियों को धारण करने वाला शब्द था | लेकिन धर्म शब्द को सीमित कर दिया गया और किसी एक विशेष परम्परा, धारणा या मत को मानने वालों के समूह की पहचान बना कर रख दिया गया धर्म को-------------- यानि सम्प्रदाय या पंथ को लोग धर्म कहने लगे और धर्म का जो मूल भाव था वह तिरोहित हो गया | ठीक इसी प्रकार संन्यास भी है | धर्मों के ठेकेदारों ने संन्यास को भी एक परम्परा बनाकर रख दिया और परिणाम यह हुआ की संन्यास एक धंधा बन गया | अब हर ऐरा गैरा कुम्भ के मेले में जाकर संन्यास की डिग्री ले लेता है कुछ हज़ार रूपये खर्च करके और बन जाता है महंत, मंडलेश्वर या जगतगुरु | कुछ लोग किसी नामी गिरामी गुरु के पास सेवा करने का ढोंग करके संन्यास लेते हैं और फिर शुरू हो जाता है पाखण्ड और उत्पात | ये साधू-समाज, या परम्पराओं में बंधे साधू-संन्यासियों और हिन्दू-मुस्ल...
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सबसे पहले तो उन दो स्त्रियों को उनकी जीत पर बधाई देती हूँ, जिन्होंने पन्द्रह वर्षों की लम्बी लड़ाई लड़ी उस बाबा के विरुद्ध जिसके साथ छः करोड़ समर्थक हैं | जिसके सामने पुलिस, नेता से लेकर सरकार तक नतमस्तक है, उसके एहसानों के बोझ से दबे हुए हैं | उन्हें इन्साफ मिला क्योंकि कुछ ईमानदार आज भी हैं | उन सभी अधिकारीयों, वकीलों व जजों के लिए हृदय से शुभकामनायें देती हूँ जिन्होंने दुनिया भर के दबाव व धमकियों के बाद भी न्याय का साथ दिया | बाबा रामरहीम को लेकर तीन चार दिनों से बहुत ही तनाव में थी जनता | कई ट्रेने रद्द की गयीं, लगभग दो सौ बटालियन अर्धसैनिक बल और पुलिस के अलावा सेना लगानी पड़ी शान्ति व्यवस्था बनाये रखने के लिए | इनका खर्च लगभग साढ़े तीन करोड़ प्रति दिन आ रहा था |  फिर भी पंचकुला में आगजनी हुई, कई मारे गये और कई घायल हुए | क्योंकि सरकार ने सुरक्षाबलों को केवल शो पीस के रूप में वहाँ सजा कर रखा था, न कि सुरक्षा व अराजक तत्त्वों पर कार्यवाही करने के उद्देश्य से | चलिए अंत में बाबा को गिरफ्तार कर ही लिया गया चाहे पन्द्रह वर्ष लग गये निर्णय लेने में |  Headlines ‘राम रही...
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अक्सर आपने देखा होगा कि कुछ लोग साधना करते हैं | समाज उन्हें साधक के नाम से जानता है | कई बार आपने देखा होगा कि कोई व्यक्ति कहता है कि मैं फ़लाने देवी-देवता की साधना करने जा रहा हूँ, या मन्त्र साधने जा रहा हूँ…. तो समाज के मन में साधना शब्द जुड़ गया धार्मिकता से | ऐसी मान्यता व्याप्त हो गयी कि साधना केवल हिन्दू साधू-संत या पंडित-पुरोहित नस्ल के लोग ही करते हैं, बाकी लोग साधना से परे होते हैं | वास्तव में साधना प्रत्येक प्राणी करता है | जीवन संग्राम या जीते रहने के लिए साधना अनिवार्य है और जो साधना नहीं कर पाता, वह मिट जाता है | तो साधना वास्तव में है क्या ????????? साधना है किसी भी ऐसी विद्या में पारंगत होना जो उसके जीवन में नियमित आवश्यकता हो | जैसे रिक्शा चालक के लिए रिक्शा खींचना दिन भर | अब कोई हमसे या आपसे कहे रिक्शा खींचने तो हम आधे घंटे भी रिक्शा नहीं खींच पायेंगे, लेकिन रिक्शा चालक दिन भर न जाने कितनी सवारियों को अपने गंतव्य तक पहुंचाता है | इसी प्रकार ट्रक ड्राईवर है जो रात-दिन ड्राइव करने में पारंगत होता है | आप नेवले को देख लें, वह साँप से लड़ने में पारंगत होता है...
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कुछ लोगों के साथ यह बहुत बड़ी समस्या होती है कि उन्हें आता तो सबकुछ है लेकिन पारंगत किसी भी चीज में नहीं होते | उन्हीं कुछ विशिष्ट व्यक्तियों में मैं भी हूँ | मुझे भी जब कोई कुछ समझाने की कोशिश करता है तो मेरे भीतर का वह भाग जागृत हो जाता है और मुझे बताता है कि यह तो पता है मुझे | कोई शास्त्र समझाता है तो लगता है कि कोई नई बात नहीं बता रहा | कोई कहता है कि झूठ बोलना चोरी करना पाप है, तो लगता है यह तो मैं पहले से जानती हूँ | …. खैर यह तो मेरी निजी समस्या है इससे आप लोगों को क्या लेना देना ???????????? तो बात करते हैं उन लोगों की जो इस बात से परेशान हैं कि उन्होंने बहुत कुछ सीखा और ढेर सारी डिग्रियां समेटी, अंग्रेजी से लेकर भोजपुरी तक कई भाषाएँ सीखी लेकिन पारंगत किसी में नहीं हुए | वे जब शाहरुख़ खान को देखते हैं तो उनके अन्दर का अभिनेता जागृत हो जाता है, जब कटरीना को देखते हैं तो अभिनेत्री जागृत हो जाती है, जब भगवाधारी को देखते हैं तो बैराग उत्पन्न हो जाता है, जब नेता को देखते हैं भीतर केजरीवाल जागृत हो जाता है, जब किसी व्यापारी को देखते हैं तो अम्बानी जागृत हो जाता है…. लेकि...
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शरीर और इन्द्रियों के प्रति कठोर बनिए शरीर और इन्द्रियों के प्रति कठोरता का व्यवहार न किया जाए, तब तक कर्मों को धक्का लगता ही नहीं। शरीर को संभालने, उसी की सेवा में लगा व्यक्ति धर्म कर नहीं सकता। शरीर की पूजा में से सब पाप पैदा होते हैं।  भगवान की पूजा करने की फुरसत शरीर के पुजारी को नहीं मिलती। आजकल शरीर की गंदगी दूर करने के लिए आत्मा में गंदगी भरी जा रही यह कैसी मूर्खता है। भगवान शरीर के प्रति कठोर थे, इसीलिए कर्मों के कठोर बन सके। शरीर कष्ट भोगने का, या सुख भोगने का साधन ????????? शरीर से सुख भोगने से संसार घटता या कष्ट भोगने से संसार घटता है ???????? जिस शरीर से सुख भोगा जा सकता था, उससे भगवान ने कष्ट ही सहन किए, यह जन्म भोग के लिए है’, ऐसा मानने वालों ने दरअसल भगवान को माना ही नहीं है। ‘ यह जन्म त्याग के लिए है’, ऐसा मानने वालों ने ही भगवान को सही रूप में माना है। संसार में लगभग सभी जीव सुख में सडने के लिए दुःख में संतप्त होने के लिए हैं। सुख के समय में इन जीवों में ऐसी सडान पैदा हो जाती है, जिसके कारण ये जीव दुःख में संतप्त होने के लिए चले जाते हैं। ऐसा क्रम चलता रहता ...
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अनैतिकता, अपराध और अँधेरे का रंग एक ही क्यों है, जबकि सद्कर्मों, सद्मार्गों और प्रकाश के कई रूप और रंग हैं | कारण एक ही है, कि अपराध, अनैतिकता और अँधेरे भेदभाव नहीं करते, वे ऊँच नीच और धर्म पंथ के झगड़ों में नहीं उलझे होते | जो उनके पास आया सभी को प्रेम से गले लगाया | किसी को किसी तरह का परहेज नहीं, कोई छुआ छूत नहीं….बस सब एक हैं उनमें , वे संगठित हैं किसी रंग या झंडे के कारण नहीं, अपनी सुरक्षा व सहयोगिता के कारण | वास्तव में सभी धार्मिक ग्रंथों के मूल में जो सहयोगिता का भाव है, वह अपराधियों ने अनजाने में ही अपना रखा था या ये कहें कि वे सनातन धर्म के मूल सिद्धांत का पालन करते हैं | इसलिए ही वे फलफूल रहें हैं और सारी दुनिया को अपने इशारों पर चला रहें हैं | वहीँ धर्म टुकड़ों में बंटा हुआ है और एक दूसरे को मिटाने के होड़ में लगा हुआ | सभी ने अपने अपने मंदिर-मस्जिद, ईश्वर और पूज्य बना लिए हैं | हिन्दुओं की स्थिति तो और भी बुरी हो रखी है, अब त्रिदेव और नौ देवियों का महत्व समाप्त हो गया | अब तो बाबा और गुरुओं का चलन है | सभी के अपने अपने गुरु और अपने अपने बाबा हैं | अब पडोसी को कोई समस्...