आजकल कर्मयोगियों की भरमार हो गयी है | ऐसा लग रहा है जैसे मक्खियों मच्छरों से अधिक कर्मयोगी ही इस दुनिया में पैदा हो गये | ये कर्मयोगी इतनी अकड़ में हैं बहुसंख्यक होने के कारण कि भक्ति-मार्गियों, ज्ञान-मर्गियों को भिखारी कहने से भी नहीं चूकते | कई बार सुनने में आता है कोई कहता है, “इन भिखमंगों से देश को आजाद करवाए बिना देश का भला नहीं हो सकता | ये लोग मुफ्त की रोटियां तोड़ते हैं कोई मेहनत वगैरह नहीं करते |”


वास्तव में कर्मयोगियों, नास्तिकों की जनसँख्या बढ़ने के कारण भारत को चीन बना देने की वकालत करने लगे | इन कूपमंडूक नास्तिकों, कर्मयोगियों और धार्मिकों में कोई अंतर नहीं है | जहाँ कूपमण्डूक धार्मिकों को सत्ता मिल जाती है वहां वे सभी पर अपनी मूढ़ता, पाखण्ड और ढोंग थोपना शुरू कर देते हैं | उन्हें नास्तिकों से एलर्जी हो जाती है | फिर दो पंथ ही आपस में मिलकर नहीं रह सकते, दो भिन्न विचारों के धार्मिक ही आपस में मिलकर नहीं रह सकते | कहीं शैव और वैष्णव आपस में उलझे रहते थे तो कहीं शिया और सुन्नी | सभी के अपने अपने संगठन हैं और सभी इसी भ्रम में जी रहे हैं कि उनका कुनबा  ही श्रेष्ठ है और बाकी सभी धरती पर बोझ | इन्हें भ्रम है कि ये ही बाकी लोगों को पाल रहे हैं और बाकी सभी बैठ कर हराम का खा रहे हैं |

यह स्वाभाविक ही है, जिस भी प्रजाति या सम्प्रदाय की जनसँख्या अधिक हो जाती है वह दूसरों पर हावी होने की कोशिश करता है | उसे लगता है कि वही सही है और बाकी सभी गलत | वही धर्म पथ पर है और बाकि सभी अधार्मिक हैं या काफ़िर हैं | क्योंकि न धर्म किसी की समझ में आया, न वर्ण किसी की समझ में आया और न प्रकृति का नियम किसी की समझ में आया | सभी किताबी दुनिया में जीते हैं और रट्टा मारकर विद्वान बने घूमते हैं |

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