एक शब्द है बलात्कार जिसका अर्थ होता है बल पूर्वक किया गया अत्याचार या शोषण | लेकिन समय के साथ बलात्कार को केवल स्त्री की इच्छा के विरुद्ध किया जाने वाला यौनचार तक सीमित कर दिया गया |
इसी प्रकार का शब्द है धर्म | धर्म एक व्यापक नियम व जिम्मेदारियों को धारण करने वाला शब्द था | लेकिन धर्म शब्द को सीमित कर दिया गया और किसी एक विशेष परम्परा, धारणा या मत को मानने वालों के समूह की पहचान बना कर रख दिया गया धर्म को-------------- यानि सम्प्रदाय या पंथ को लोग धर्म कहने लगे और धर्म का जो मूल भाव था वह तिरोहित हो गया |
ठीक इसी प्रकार संन्यास भी है | धर्मों के ठेकेदारों ने संन्यास को भी एक परम्परा बनाकर रख दिया और परिणाम यह हुआ की संन्यास एक धंधा बन गया | अब हर ऐरा गैरा कुम्भ के मेले में जाकर संन्यास की डिग्री ले लेता है कुछ हज़ार रूपये खर्च करके और बन जाता है महंत, मंडलेश्वर या जगतगुरु |
कुछ लोग किसी नामी गिरामी गुरु के पास सेवा करने का ढोंग करके संन्यास लेते हैं और फिर शुरू हो जाता है पाखण्ड और उत्पात | ये साधू-समाज, या परम्पराओं में बंधे साधू-संन्यासियों और हिन्दू-मुस्लिम, सिख, इसाई आदि सम्प्रादयों में कोई अंतर नहीं है |
हाँ इनमें से कुछ लोग चैतन्य हो जाएँ, जागृत हो जाएँ तो वह अलग बात है |
चैतन्य व जागृत तो कोई भी कभी भी कहीं भी हो सकता है | उसके लिए संन्यास लेने की कोई आवश्यकता नहीं |
क्योंकि जो चैतन्य है, जो जागृत है वह स्वतः संन्यासी है उसे किसी अन्य के सर्टिफिकेट या उपाधि की आवश्यकता ही नहीं है | दुनिया उसे संन्यासी या साधू माने या न माने उसे कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि संन्यास कोई उपाधि नहीं केवल भाव है |
संन्यास की सबसे सही व्याख्या मुझे लगी वह ओशो द्वारा दी गयी व्याख्या है |
“जीवन को आत्म-अज्ञान के बिंदु से देखना संसार है, आत्म-ज्ञान के बिंदु से देखना संन्यास है। इसलिए जब कोई कहता है कि मैंने संन्यास लिया है, तो मुझे बात बड़ी असत्य मालूम होती है। यह लिया हुआ संन्यास ही संसार के विरोध की भ्रांति पैदा कर देता है।
संन्यास भी क्या लिया जा सकता है???????????
क्या कोई कहेगा कि ज्ञान मैंने लिया है?????????????????
लिया हुआ ज्ञान भी क्या कोई ज्ञान होगा????????????????
संन्यास का अर्थ है: यह बोध कि मैं शरीर ही नहीं हूं, आत्मा हूं। इस बोध के साथ ही भीतर आसक्ति और अज्ञान नहीं रह जाता है। संसार बाहर था, अब भी वह बाहर होगा, पर भीतर उसके प्रति राग-शून्यता होगी, या यूं कहें कि संसार अब भीतर नहीं होगा।”
संन्यासी होने का अर्थ है भुखमरी और दुनिया भर के कष्टों को सहते हुए जीवन जीना |संन्यासी होने का अर्थ है भयमुक्त, सुखमय, प्रसन्नचित जीवन जीते हुए आत्मोत्थान के मार्ग पर निरंतर बढ़ते रहना | नित नए-प्रयोगों द्वारा स्वयं व दूसरों के हितों के उपाय खोजते रहना | जैसे प्राचीन ऋषि मुनि किया करते थे |उन्हीं की खोजों के कारण आज हम आयुर्वेद से परिचित हैं, आज हम भारतीय के पास जो कुछ श्रेष्ठ कहने या दिखने के लिए है, वह उन्ही प्राचीन ऋषि-मुनियों के खोजों के ही परिणाम हैं |
ये रट्टा-मार पंडित पुरोहित, गोल्डन, पायलट या लेपटोप बाबाओं का कोई योगदान नहीं है | ये केवल परजीवी हैं और अपने लिए ही जीते हैं | इनमें इतना भी साहस नहीं कि किसी भ्रष्ट नेता या अधिकारी का विरोध कर सकें | जबकि अष्टावक्र जैसे कितने विद्वान पहले हुए जो सम्राट तक से भयभीत नहीं होते थे |
कोई भी व्यक्ति तब तक संन्यासी नहीं है, जब तक वह स्वयं से अपरिचित है | यदि कोई संन्यासी स्वयं से परिचित हो जाता है, तब वह वही नहीं रह जाता, जैसा कि वह पहले था | उसमें रूपांतरण होना शुरू हो जाता है | वह समाज व दूसरों के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाता है | जैसे कि गौतम बुद्ध हुए, महावीर हुए, विवेकानन्द हुए, ओशो हुए |
गौतम बुद्ध को क्या जरुरत पड़ी थी जंगल से वापस लौटने की और समाज के पत्थर और गालियाँ खाने की ?
इसलिए न, कि जैसे ही वे स्वयं से परिचित हुए, तब दूसरों की पीड़ा उन्हें अपनी लगने लगी | वे लोगों को उन पीडाओं से मुक्त करवाना चाहते थे | इसलिए लौट आये समाज में | लेकिन परिणाम क्या हुआ ?
क्या समाज बुद्ध हो को समझ पाया ?
नहीं समाज बुद्ध को नहीं समझ पाया और बुद्ध होने का प्रयास छोड़ केवल बौद्ध बनकर रह गये | गौतम बुद्ध तो सभी को बुद्ध ही बनाना चाहते थे, लेकिन लोगों की रूचि ही नहीं थी बुद्ध होने में, इसीलिए बौद्ध बनकर ही गुजारा कर रहे हैं |
इसी प्रकार जितने भी महान आत्माएं आयीं वे सभी समाज को जागृत ही करना चाहतीं थीं, लेकिन समाज को जाग्रति से ही परहेज है | इसलिए उन महान आत्माओं के नाम पर सम्प्रदाय और पंथ बनते चले गये |
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