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Showing posts from September, 2017
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क्या है कृष्ण का अर्थ ?????????????  कृष धातु का एक अर्थ है खेत जोतना ,दूसरा अर्थ है आकर्षित करना।  कृष्ण का अर्थ है विश्व के प्राण ,उसकी आत्मा।  कृष्ण का तीसरा अर्थ है वह तत्व जो सबके 'मैं पन ' में रहता है।  मैं हूँ ,क्योंकि कृष्ण है। सम्पूर्ण संसार के प्राण हैं कृष्ण  हम सभी समय -समय पर द्वेष वैमनस्य ,क्रोध ,भय ,ईर्ष्या आदि के कारण दुखी होते हैं। जब हम दुखी होते हैं तब यह दुःख अपने तक ही सीमित नहीं रखते। हम औरों को भी दुखी बनाते हैं। जब कोई व्यक्ति दुखी होता है तो आसपास के सारे वातावरण को अप्रसन्न बना देता है ,व उसके सम्पर्क में आने वाले लोगों पर इसका असर होता है। सचमुच यह जीवन जीने का तरीका नहीं है।  कृष्ण का अर्थ ???????  वे जो खींच लेते हैं ,वे जो प्रत्येक को अपनी ओर आकर्षित करते हैं ,जो सम्पूर्ण संसार के प्राण हैं -वही हैं कृष्ण। कृष्ण शब्द के अनेक  अर्थ हैं।  कृष धातु का एक अर्थ है खेत जोतना ,दूसरा अर्थ है आकर्षित करना। कृष्ण  का अर्थ है विश्व के प्राण ,उसकी आत्मा। कृष्ण का तीसरा अर्...
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सब कुछ कृष्ण का कृष्ण कहते हैं '-जो कुछ भी हम स्पर्श करते हैं ,जो भी हम इस विश्व में देखते हैं -वह सब कुछ कृष्ण का ही है। तुम अपनी इच्छाओं और वृत्तियों के अनुसार उनसे जो भी चाहते हो ,तुम पाओगे।तुम जो धन मांगते हो तुम धन पाओगे ,किन्तु उनको नहीं पाओगे ,क्योंकि तुम धन मांगते हो उनको नहीं। तुम उनसे यदि नाम और यश मांगोगे तो वह भी मिलेगा ,किन्तु वह नहीं मिलेंगे ,क्योंकि तुम उनको नहीं मांगते हो। तुम उनके द्वारा कुछ मांगते हो। यदि तुम चाहते हो कि वे तुम्हारे शत्रुओं को नष्ट  कर दें और तुम धर्म के पथ पर हो ,तुम्हारी मांग उचित है तो वे तुम्हारे शत्रुओं का नाश कर देंगे किन्तु तुम उन्हें नहीं पाओगे ,क्योंकि कि तुम उन्हें नहीं मांगते हो। तुम यदि उनसे मुक्ति और मोक्ष मांगते हो और यदि तुम योग्य पात्र हो तो तुम उनसे प्राप्त कर लोगे ,किन्तु उनको नहीं पा सकोगे क्योंकि तुमने उन्हें नहीं माँगा। अत : एक बुद्धिमान साधक कहेगा -'मैं तुम्हें ही चाहता हूँ ,और किसी को नहीं चाहता और मैं तुम्हें क्यों चाहता हूँ ?इसलिए नहीं कि तुम्हारी उपस्थिति मुझे सुख देगी ,बल्कि इसलिए कि तुम्हारी उपस्थिति मुझे तुम्हारी...
श्रीमद्भागवत का अर्थ प्रभु के स्मरण मात्र से ही लोक -परलोक सुधर जाते हैं। इस मृत्यु  लोक से कुछ भी साथ  नहीं जाता ,अगर जाता है तो केवल कर्म का फल। भागवत की कथा का वाचन और श्रवण दोनों ही फलदायी हैं। प्रभु की स्तुति ,सत्संग और कर्म ही साथ रहते हैं।इसलिए जितना भी  कर सको और उनका नाम जप सको उतना अधिक लाभकारी है। प्रभु की कथा श्रवण करने और उनके स्मरण से अपना लोक और परलोक सुधारें ,राधे राधे का जाप करें।                    कृष्ण यानी आकर्षित करने वाला   श्रद्धा  से पुकारने पर भगवान दौड़े चले आते हैं।  जिस प्रकार गज की पुकार पर भगवान श्री नारायण दौड़े -दौड़े आये ,उसी प्रकार श्रद्धा से यदि कोई उन्हें पुकारता है तो वे दौड़े चले आते हैं।                           न स गर्भ गता भूया : मुक्ति भागी न संशय : कौशिकी संहिता में लिखा है कि श्रीमद्भागवत की कथा ही अमर कथा है। भगवान शिव ने पार्वती को अमर कथा सुनाई ,ये तो हम बार बार सुनते रहते हैं ...
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माँ दुर्गा के महात्म्य का ग्रन्थ सप्तशती शाक्त संप्रदाय का सवार्धिक प्रचलित ग्रन्थ है और यह भी निर्विवाद सत्य है कि जितना शाक्त सम्पद्रय में है उतना ही शैव-वैष्णव और अन्य संप्रदाय में भी है सभी संप्रदाय में समान रूप से प्रचलित होने वाला एक मात्र ग्रन्थ सप्तशती है पाश्चात्य के प्रसिद्द विद्वान और विचारक मि. रोला ने अपने विचारों में सहर्ष स्वीकार किया है कि “सप्तशती के नर्वाण मन्त्र को (ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै) संसार की सर्वश्रेष्ठतम प्रार्थनाओं में परिगणित करता हूँ” | सौम्या सौम्य तरा शेष सौमेभ्यस्वती सुंदरी ----- “देवि तुम सौम्य और सौम्यतर तो हो ही, परन्तु इतना ही, जितने भी सौम्य पदार्थ है, तुम उन सब में सब की अपेक्षा अधिक सुंदरी हो” | ऋषि गौतम मार्कण्डेय आठवे मनु की पूर्व कथा के माध्यम से नृपश्रेष्ठ सुरथ एवं वणिक श्रेष्ठ समाधी को पात्र बनाकर मेधा ऋषि के मुख से माँ जगदम्बा के जिन स्वरूपों का वर्णन किया गया है .. वह सप्तसती का मूल आख्यान है | शक्ति-शक्तिमान दोनों दो नहीं है अपितु एक ही हैं शक्ति सहित पुरुष शक्तिमान कहलाता है जैसे ‘शिव’ में इ शक्ति है---यदि (शिव) में से ‘इ’ ...
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तीन पदार्थ हैं- एक ईश्वर, एक जीवात्मा,एक प्रकृति। इन तीनों के बारे में विचार करेंगे, बारी-बारी से चिंतन करेंगे। फिर कोई न कोई निर्णय हो जाएगा। पहला प्रश्न- क्या जीवात्मा सृष्टि बना सकता है ????????? उत्तर है- जीवात्मा सृष्टि को नहीं बना सकता। तारों को नहीं बना सकता, पृथ्वी को नहीं बना सकता। यह उसके वश की बात नहीं है। उसमें इतनी शक्ति, बु(ि व योग्यता ही नहीं है। तो तीन में से एक का निर्णय तो हो गया, कि जीवात्मा सृष्टि नहीं बना सकता। दूसरा प्रश्न- क्या प्रकृति स्वयं पृथ्वी बना सकती है???????? उत्तर है- कभी नहीं बना सकती। क्योंकि उसमें अक्ल ही नहीं है। सृष्टि की रचना को देखने से पता चलता है, कि कितनी बु(िमत्ता का इसमें प्रयोग किया गया है। बहुत बु(िमता से व्यवस्थित पृथ्वी बनी हुई है। किसी भी पेड़-पत्त्ते को देख लीजिए। वनस्पति शास्त्र पढ़िये। ऊँचे नीचे वृक्षों की रचना को देखिए, तो आपको पता चलेगा, कि कितनी व्यवस्थित है। शरीर विज्ञान पढ़िये। शरीर रचना को देखिए, कि वो कितनी व्यवस्थित है। नस, नाड़ियाँ, पाचन तंत्र, तंत्रिका तन्त्र आदि, सारे सिस्टम कितने व्यवस्थित हैं। इनमें जो इतनी व्यवस्था है- ...
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श्रीकृष्णकृतं दुर्गास्तोत्रम् श्रीकृष्ण उवाच त्वमेवसर्वजननी मूलप्रकृतिरीश्वरी। त्वमेवाद्या सृष्टिविधौ स्वेच्छया त्रिगुणात्मिका॥ कार्यार्थे सगुणा त्वं च वस्तुतो निर्गुणा स्वयम्। परब्रह्मस्वरूपा त्वं सत्या नित्या सनातनी॥ तेज:स्वरूपा परमा भक्त ानुग्रहविग्रहा। सर्वस्वरूपा सर्वेशा सर्वाधारा परात्परा॥ सर्वबीजस्वरूपा च सर्वपूज्या निराश्रया। सर्वज्ञा सर्वतोभद्रा सर्वमङ्गलमङ्गला॥ सर्वबुद्धिस्वरूपा च सर्वशक्ति स्वरूपिणी। सर्वज्ञानप्रदा देवी सर्वज्ञा सर्वभाविनी। त्वं स्वाहा देवदाने च पितृदाने स्वधा स्वयम्। दक्षिणा सर्वदाने च सर्वशक्ति स्वरूपिणी। निद्रा त्वं च दया त्वं च तृष्णा त्वं चात्मन: प्रिया। क्षुत्क्षान्ति: शान्तिरीशा च कान्ति: सृष्टिश्च शाश्वती॥ श्रद्धा पुष्टिश्च तन्द्रा च लज्जा शोभा दया तथा। सतां सम्पत्स्वरूपा श्रीर्विपत्तिरसतामिह॥ प्रीतिरूपा पुण्यवतां पापिनां कलहाङ्कुरा। शश्वत्कर्ममयी शक्ति : सर्वदा सर्वजीविनाम्॥ देवेभ्य: स्वपदो दात्री धातुर्धात्री कृपामयी। हिताय सर्वदेवानां सर्वासुरविनाशिनी॥ योगनिद्रा योगरूपा योगदात्री च योगिनाम्। सिद्धिस्वरूपा सिद्धानां...
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माता भगवती की कृपा द्धारा ही चराचर जगत चलायमान है , अर्थात हम जो कुछ भी देख रहे हैं ये सब जगतजननी जगदम्बा का अपना ही स्वरुप है , माता के सुन्दर चरित्र का इतिहास बड़े गूढ़ साधन-रहस्यों से ओत-प्रोत है | जिसमें कर्म , भक्ति और ज्ञान तीन प्रकार की मन्दाकिनी साधकों को शीतलता प्रदान करती हैं | सकाम भक्त इसके सेवन से मनोअभिलषित ( मनमाफिक ) दुर्लभतम वस्तु या स्थिति सहज ही प्राप्त कर लेते हैं , और निष्काम भक्त परम दुर्लभ मोक्ष को पाकर कृतार्थ होते हैं | जिनकी अराधना करके स्वयं ब्रह्मा जी इस जगत के सृजनकर्ता हुये , भगवान विष्णु पालनकर्ता हुये तथा भगवान शंकर संहार करने वाले हुये , योगीजन जिनका ध्यान करते हैं और तत्वार्थ जानने वाले मुनिगण जिन्हें मूल-प्रकृति कहते हैं --- स्वर्ग व मोक्ष प्रदान करने वाली उन जगतजननी भगवती को मैं प्रणाम करती हूँ | माँ भगवती मतलब “शक्ति” अर्थात “उर्जा” (power) जीवन के दोनों रूपों --- भौतिक और आध्यात्मिक --- का आधार शक्ति (उर्जा) ही तो है | आध्यात्मिक पक्ष में में आत्मा अर्थात “प्राण शक्ति” ने साथ छोड़ा नहीं कि मृत्यु हुयी नहीं | उसी प्रकार से भौतिक जगत में भी शक्ति ...
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कई दिनों से मन में एक बात चल रही है, सो यह पोस्ट लिख रही हूँ | जन्माष्टमी के दिन की कई सारे विद्वानों की कई सारी पोस्ट्स पढ़ीं | इससे पहले भी कई कवितायेँ, कई लेख पढ़ती आई हूँ कृष्ण पर, महाभारत पर, मानस पर, राम पर, सीता पर ... | कोई कृष्ण और राम को महान या असाधारण गुणों से युक्त मानव के रूप में दर्शाती हैं, जिन्होंने अपने सामर्थ्य और समझ के अनुसार धर्म स्थापना की | कोई उन्हें स्वार्थी शक्तिकेंद्रों के रूप में - जिन्होंने अपनी धर्म की परिभाषा निरीह जनता और आने वाली पीढ़ियों पर थोप दी | कोई तो खुले शब्दों में उनके चरित्र पर प्रश्न उठाती हैं, और कोई दबे ढंके शब्दों में | एक बहुत बड़ी संख्या में ऐसे भी व्यक्ति हैं, जो अपने आप को "हिंदुत्व" का रक्षक मानते और दर्शाते है, किन्तु वे भी "pick and choose" करते हैं - वे कहते हैं - मैं हिन्दू हूँ, राम / कृष्ण को भगवान के अवतार मानता हूँ - लेकिन ... एक बहुत बड़ी संख्या में पोस्ट्स हैं जो "कृष्ण" की रासलीला / कई गोपियों से प्रेम / गोपियों के वस्त्रहरण / राधा से धोखा / अनेक स्त्रियों से दाम्पत्य सम्बन्ध आदि पर कई प्रश...
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क्या हमें अपने आराध्यों की आलोचना का अधिकार है ?????????????? यह हिन्दू धर्म की "खासियत" या "तारीफ़" की बात नहीं है की हम अपने आराध्यों की आलोचना करते हैं, बल्कि यह हमारी कमी है, कि हमने इसे इतना common बना लिया कि अब यह हमें normal लगने लगा है । एक रेपिस्ट के लिए रेप करना "normal" है, एक चोर के लिए चोरी करना "normal" है, एक डाकू के लिए डाका डालना भी normal है । इसका अर्थ यह नहीं है कि यह सब सच ही में नोर्मल है । .............. और इसी तरह से आराध्यों की आलोचना भी normal नहीं है, और "हिन्दू" या कोई भी समाज / धर्म इसे सही नहीं ही मानते हैं / ठहरा रहे हैं । हम ऐसा इसलिए समझने लगे हैं, कि हमें अपने धर्म के बारे में सही जानकारी ही नहीं है । जानकारी कैसे हो ????????????? एक तरीका था कि हम धर्मग्रन्थ पढ़ कर जानते - लेकिन हमने तो अपने ग्रन्थ भी नहीं पढ़े (जिससे हम जान पाते) कि हमारा धर्म क्या कहता है (समय कहाँ है हमारे पास यह सब पोथियाँ पढने के लिए ???) । और दूसरा तरीका था धर्म गुरुओं से आम इंसान धर्म के बारे में जान पाता । वह भी नहीं...
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गुरु की धारणा मौलिक रूप से पूर्वीय है.............पूर्वीय ही नहीं, भारतीय है......... गुरु जैसा शब्द दुनियां की किसी भाषा में नहीं है। शिक्षक, टीचर, मास्टर ये शब्द हैं: अध्यापक......... लेकिन गुरु जैसा कोई भी शब्द नहीं है.............गुरु के साथ हमारे अभिप्राय ही भिन्न है। पहली बात: शिक्षक से हमारा संबंध व्यावसायिक है, एक व्यवसाय का संबंध है.. गुरु से हमारा संबंध व्यवसायिक नहीं है... आप किसी के पास कुछ सीखने जाते है.. ठीक है, लेनदेन की बात है। आप उससे कुछ उसे भेंट कर देते है, बात समाप्त हो जाती है यह व्यवसाय है.. एक शिक्षक से आप कुछ सीखते है सीखने के बदले में उसे कुछ दे देते है, बात समाप्त हो सकती है......गुरु से जो हम सीखते है उसके बदले में कुछ भी नहीं दिया जा सकता... कोई उपाय देने का नहीं है.. क्योंकि जो गुरु देता है उसका कोई मूल्य नहीं है... जो गुरु देता है, उसे चुकाने का कोई उपाय नहीं है। उसे वापस करने का कोई उपाय नहीं है.......क्योंकि शिक्षक देता है सूचनाएं जानकारियां, इकमेंशन.. गुरु देता है अनुभव.. यह बड़े मजे की बात है कि शिक्षक जो जानकारी देता है, जरुरी नहीं कि वह जानकारी ...
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पति-पत्नी ( शिव-शक्ति ) सभी मानवीय रिश्तों में केवल पति-पत्नी का ही रिश्ता एकमात्र ऐसा रिश्ता है जो पूर्णता प्रदान करता है किसी व्यक्ति को | यह मेरी व्यक्तिगत धारणा है हो सकता है आप मुझसे असहमत हों और असहमत होना आपका मौलिक अधिकार भी है | लेकिन मैं ऐसा मानती हूँ कि दुनिया के जितने भी सम्बन्ध मानव समाज ने स्थापित या निर्माण किये हैं, उन सभी में माँ-बच्चों के सम्बन्ध के बाद जो पूर्णता प्रदान करने वाला सम्बन्ध है वह पति-पत्नी का ही होता है | ये दो रिश्ते ही ऐसे रिश्ते हैं जो ईश्वरीय हैं, प्राकृतिक हैं लेकिन पति-पत्नी का सम्बन्ध व्यक्ति को पूर्णता प्रदान करता है | स्त्री और पुरुष दो शक्तियां हैं और दोनों शक्तियों का जब मिलन होता है तब वह शिव-शक्ति बन जाती है .......इसलिए मैं पति-पत्नी के सम्बन्ध को शिव-शक्ति के रूप में सम्पूर्ण सम्बन्ध मानती हूँ | बाकी दुनिया में जितने भी सम्बन्ध हैं सिवाय माँ बच्चों के, सभी मानव निर्मित हैं, समाज द्वारा निर्मित हैं और अधूरे हैं | पूर्णता तो केवल पति-पत्नी के सम्बन्धों में ही है यदि यह सम्बन्ध स्वार्थ व भौतिकता से ऊपर उठ चूका हो | यही ऐसा सम्बन्ध है, ...
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“ बुद्धि से परे जाकर ही समाधान मिलता है” क्योंकि बुद्धि यानि लॉजिकल ब्रेन वास्तव मैं जैविक RAM (Random Access Memory) है | जिसमें हम डेटा सेव और डिलीट कर सकते हैं | पर हमारा शरीर एक अल्ट्रा एडवांस मशीन है जिसमें एक सुपर कंप्यूटर इनबिल्ट हैं ..........इस पुरे सिस्टम को चलने के लिए इसमें एक चिप या ROM (Read Only Memory) भी है जिसमें प्रोग्राम प्रीलोडेड होते हैं, जिसे हम अवचेतन मन या सबकॉन्शियस माइंड कहते हैं | लॉजिकल ब्रेन का ही प्रयोग आप करते हैं और उसी के अनुसार आप का व्यवहार, कर्म या उद्देश्य तय है ऐसा मानते हैं | और कई लोग हैं जो इसे प्रमाणित भी करते हैं ..... मैं यहाँ अपनी बात को समझाने के लिए वर्तमान समय के पदार्थों का प्रयोग इसलिए कर रही हूँ, क्यों ये प्रश्न लॉजिकल ब्रेन के हैं और लॉजिकल ब्रेन का आध्यात्म से कोई लेना देना नहीं होता | वह वेद, गीता, क़ुरान, बाइबल रट सकता है, गहरी व्याख्या भी कर सकता है पर उसमें समाई आध्यात्मिकता को नहीं समझ सकता .................... न ही समझ सकता है ईश्वर को और न ही भाग्य को | अब आते हैं मूल प्रश्नों पर कि देव (ईश्वर), देवत (भाग्य) के बिना कर्म...
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श्री कृष्ण सिर्फ रासलीलाएं नहीं रचाते थे, वह प्रबंधन के माहिर थे। आइए उनसे सीखें, मैनेजमेंट के गुर… व्यापक विजन तीन स्टूडेंट्स थे। तीनों से एक सवाल पूछा गया : आप पढ़ क्यों कर रहे हैं? पहला बोला : मुझे परिवार का पेट पालना है।                                        दूसरे ने कहा : मैं यह दिखाना चाहता हूं कि मैं दुनिया का सबसे जीनियस स्टूडेंट हूं। तीसरे ने कहा : मैं पढ़कर एक बेहतर समाज और देश का निर्माण करना चाहता हूं। तीनों एक ही काम कर रहे हैं, लेकिन तीनों के नजरिये में कितना फर्क है! कृष्ण कहते हैं कि आप जो भी कर रहे हैं, उसे लेकर आपकी सोच और आपका विजन व्यापक होना चाहिए। वर्तमान पर फोकस कृष्ण कहते हैं कि जो भी आपका काम है, उसे पूरे निर्लिप्त भाव से करें। आपका जो वर्तमान काम है, उसे अपनी भविष्य की चिंताओं और अपेक्षाओं के बदले गिरवी रखकर करेंगे तो कभी भी अपना काम सही तरीके से नहीं कर पाएंगे। अपनी ड्यूटी निभाने का सबसे अच्छा तरीका निष्काम कर्म ही है। पॉजिटिव...