कई दिनों से मन में एक बात चल रही है, सो यह पोस्ट लिख रही हूँ |
जन्माष्टमी के दिन की कई सारे विद्वानों की कई सारी पोस्ट्स पढ़ीं | इससे पहले भी कई कवितायेँ, कई लेख पढ़ती आई हूँ कृष्ण पर, महाभारत पर, मानस पर, राम पर, सीता पर ... |
कोई कृष्ण और राम को महान या असाधारण गुणों से युक्त मानव के रूप में दर्शाती हैं, जिन्होंने अपने सामर्थ्य और समझ के अनुसार धर्म स्थापना की |
कोई उन्हें स्वार्थी शक्तिकेंद्रों के रूप में - जिन्होंने अपनी धर्म की परिभाषा निरीह जनता और आने वाली पीढ़ियों पर थोप दी |
कोई तो खुले शब्दों में उनके चरित्र पर प्रश्न उठाती हैं, और कोई दबे ढंके शब्दों में |
एक बहुत बड़ी संख्या में ऐसे भी व्यक्ति हैं, जो अपने आप को "हिंदुत्व" का रक्षक मानते और दर्शाते है, किन्तु वे भी "pick and choose" करते हैं - वे कहते हैं - मैं हिन्दू हूँ, राम / कृष्ण को भगवान के अवतार मानता हूँ - लेकिन ...
एक बहुत बड़ी संख्या में पोस्ट्स हैं जो "कृष्ण" की रासलीला / कई गोपियों से प्रेम / गोपियों के वस्त्रहरण / राधा से धोखा / अनेक स्त्रियों से दाम्पत्य सम्बन्ध आदि पर कई प्रश्न उठाती हैं |
इसी तरह से "राम" पर जो प्रश्न उठाये जाते हैं उनमे मुख्य हैं बाली को छिप कर मारना / सीता की अग्निपरीक्षा / सीता को गर्भिणी स्थिति में वनवास / लव कुश के बारे में जान लेने के बाद भी प्रश्न |
यह सब कई जगह कई तरह से लिखा जाता है | इनमे से हर प्रश्न के उत्तर हैं, दिए भी जाते हैं, किन्तु प्रश्न फिर भी हैं ,,, उत्तर मेरे पास भी हैं, लेकिन यहाँ मैं प्रश्नों के समाधानों की बात ले कर नहीं आयी हूँ .......... यह पोस्ट मैं उत्तरों पर नहीं, तर्कों पर नहीं, बल्कि प्रश्नों पर लिख रही हूँ |
लिखने वाले विद्वान् /विदुषी जन अपनी अपनी व्याख्याएं लिखते हैं, इन सभी "पात्रों" की विचारधारा / उनके किये कर्मों को अपने अपने हिसाब से परिभाषित करते हुए | कुछ प्रश्न हैं मन में - कुछ सहमतियाँ तो कुछ असहमतियां हैं |
पाठकों को अनुचित लगती हो मेरी बात, तो उनकी आपत्ति सर माथे पर |
यदि आप यह पोस्ट पढ़ कर यह कहना चाहें कि इस तरह की अवैज्ञानिक सोच रखने के कारण , मैं गंवार हूँ / अन्धविश्वासी हूँ - और अनपढ़ हूँ आदि आदि - तो ये सब आक्षेप मुझे स्वीकार्य होंगे | लेकिन मैं अपनी बात कहना चाहूंगी अवश्य ,,,,,,,,,,,, जो अपील मैं कर रही हूँ, यह सिर्फ हिन्दू धर्म के अनुयायियों से एक चर्चा या अपील है |
जब हम छोटे थे, शायद हम से पहले के जनरेशंस में भी, बचपन से हम यह मानते थे कि श्री राम, श्री कृष्ण, माँ सीता, माँ राधा, ... ये कुछ ऐसे नाम थे जिन्हें श्रद्धेय और पूज्य माना जाता था | इसमें कोई प्रश्न नहीं उठाये जाते थे, न उनके चरित्र की लीलाओं में बाल की खाल निकाली जाती थे | हम मानते थे कि वे इश्वर हैं , और यदि इश्वर हैं तो, वे जो भी कर रहे हैं, उसके पीछे दिव्य कारण होंगे । जो बातें हमें समझ आ जाते थी, वे ठीक, और जो हमें अपने हिसाब से सही नहीं भी लगती हों, वे भी स्वीकार ली जाती थीं |
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फिर हम बड़े हो गए, समझदार हो गए | पढ़े लिखे विद्वान् विदुषी जन हो गए | अब हम उन बातों को स्वीकार नहीं पाए क्योंकि वह निश्छल प्रेम भक्ति नहीं रही | अब तीन या चार ऑप्शन थे हमारे पास |
1. या तो हम "श्रद्धा" रखें, और यह माने कि नहीं - हमारी परिभाषाएं यदि इश्वर को गलत बताएं, तो परिभाषाएं गलत होंगी, क्योंकि यदि वे इश्वर हैं तो वे गलती नहीं कर सकते |
2. या तो हम मान लें कि वे इश्वर के "अवतार" नहीं, शक्तिशाली ऐतिहासिक मानव भर थे, जिन्होंने यदि ५० अच्छाइयां कीं, तो १ बुराई भी | यदि उन्होंने 100 अच्छे काम किये तो 2-3 बुरे भी । लेकिन, यदि हम ऐसा मानें, तो हमें स्वीकार करना होगा कि हमारे शास्त्र झूठे हैं, क्योंकि शास्त्र इन्हें इश्वर के अवतार ही बताते हैं, वह भी इनके आगमन से पहले ही इनकी पूर्वसूचना देते हुए |
शास्त्रों में से pick and choose नहीं किया जा सकता न ???????????
3. या फिर यह मान लें कि इश्वर कोई होता ही नहीं, दुनिया अपने आप ही बनती बिगडती रहती है | यदि हम ऐसा मानते हैं, तब तो हमें अपने आप को "हिन्दू" या "ब्राह्मण" नहीं कहना चाहिए, बल्कि खुले रूप से स्वीकार लेना चाहिए कि नहीं - हमें इश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं | यह कहने वाले लोगों का मैं सम्मान करती हूँ, कम से कम उनमे हिम्मत है साफ़ तौर पर अपनी स्थिति साफ़ करने की |
4. लेकिन सबसे ज्यादा जो ऑप्शन चुना गया देख रही हूँ, वह यह है कि - हम अपने को हिन्दू भी कहेंगे | शास्त्रों को मानने वाला भी कहेंगे | राम और कृष्ण को अवतार मानते हुए अपने घर में सारी प्रार्थनाएं भी करेंगे, उनके चित्र अपने घर के "मंदिर" कहलाने वाली जगह पर भी रखेंगे और अगरबत्ती भी घुमाएंगे, उनसे अपने promotions और घर के लोगों की स्वास्थय सम्बन्धी या अन्य परेशानियों से हमें निजात दिलाने को 101 रुपये के प्रसाद की घूस भी offer करेंगे | हम रामायण का परायण भी करेंगे और अदालतों में गीता जी की कसमें भी खायेंगे | लेकिन, जब हम post /चर्चा पर आयेंगे, या "पढ़े लिखे समझदार reasonable लोगों के बीच बैठेंगे - तो हम ऐसा दर्शाएंगे कि जी हम तो बिलकुल "दकियानूसी" नहीं हैं |
** हिन्दू हैं, लेकिन नासमझ हिन्दू नहीं | हम जानते हैं कि राम और कृष्ण कोई अवतार वगैरह नहीं थे - वे बस असामान्य रूप से gifted पुरुष भर थे |
** सीता बस रावण के genetic / test tube experiment से उपजी एक टेस्ट ट्यूब बेबी थी |
** कृष्ण एक lover बॉय थे जो राधा (lover girl ) से प्रेम का नाटक कर उसे छोड़ गए |
** सीता को राम से (इसी तर्ज पर राधा को कृष्ण से आदि )बड़ी शिकायतें थीं जो इतिहास की पुस्तकों में "पुरुष वादियों "" ने दबा दीं |
** तुलसी बस एक पत्नी से खार खाए, पुरुष अहंकार के मारे व्यक्ति भर थे, जिन्होंने जहाँ तहां स्त्रियों के लिए जाने क्या क्या लिखा ...
और भी ऐसी ही कई "modern " विचारधारा की बातें |
short में - हमें अपने हिन्दू होने का , अपने विश्वासों को खुले रूप से स्वीकार करने का अर्थ, अपनी तौहीन लगने लगा है | हमें शर्म महसूस होती है यह कहने में कि - हाँ - मुझे विश्वास है कि मेरे धर्म के अनुसार मैं जो मंदिर जाता हूँ / राम आदि को इश्वर मानता हूँ, मूर्ती की पूजा करता हूँ, इस सब में मुझे विश्वास है |
हम यह दर्शाते हैं कि "यह सब मैं सिर्फ "परम्परा " के चलते कर तो रहा हूँ, किन्तु मैं एक modern पढ़ा लिखा व्यक्ति हूँ - जो मन में तो जानता ही है कि यह सब मूर्खतापूर्ण है |
इससे अधिक दर्दनाक ( और खतरनाक ) बात तो यह कि - हम स्वयं तो खैर यह सब कह ही रहे हैं - लेकिन इसके साथ ही हमने एक ऐसा "modern " माहौल बना लिया है अपने आस पास, कि कोई यदि रोज़ मंदिर जाना चाहता है, राम को इश्वर मानना चाहता / ती है - तो उसे भी हमने इतना डरा दिया है कि वह भी यह कहने से पहले दस बार सोचे कि ऐसा कहूं / करूँ या न कहूं |
एक ज़माना था जब सब आस्तिक थे और कोई एकाध व्यक्ति नास्तिक - तो वह बेचारा दूसरों के डर के मारे दर्शाता था कि वह भी आस्तिक है | आज की स्थिति इससे उलटी है - वह अकेला यह स्वीकारने में भयभीत है कि हाँ, मैं आस्तिक हूँ, मैं राम को ईश्वर मानता हूँ | दोनों ही स्थितियां बराबर रूप से गलत हैं - व्यक्ति की निजी विचारधारा यदि डर से भीतर दबा दी जानी पड़े - तो यह कोई अच्छी स्थिति नहीं है |
मैं यह पूछना चाहूंगी - सभी से - उत्तर मुझे नहीं अपने आप को ही दीजियेगा |
यदि हम इतने ही modern हैं, तो फिर हमें क्या तकलीफ है यदि "हिन्दू" संस्कृति ख़त्म हो रही है ? क्यों हम श्रावण सोमवार / जन्माष्टमी / गणेशोत्सव / नवरात्रि / दशहरा / दीवाली आदि मानते हैं ????????
यदि सिर्फ राम के अयोध्या लौटने की ख़ुशी में दीवाली मन रही है - तो ऐसा क्या है सिर्फ (एक असाधारण रूप से गिफ्टेड) राजा के लौटने में जिसे हजारों साल बाद मनाया जाए ?/?????????
यदि ऐसा नहीं है, हम सच ही मानते हैं कि वे अवतार हैं - तो फिर यह modern होने और उन्हें सिर्फ पुरुष कहने का दिखावा क्यों ???????????
मेरा मानना है कि यह जो हम कहते हैं कि हिन्दू धर्म को "conversion " आदि ने नुकसान पहुँचाया है - यह हमारे अपनी responsibility को दूसरों पर थोपने के आलावा और कुछ नहीं है | hinduism को यदि किसी ने नुकसान पहुंचाया है - तो वह हैं हम खुद |
** इस्लाम में प्रवेश का पहला वाक्य है "सिर्फ एक अल्लाह हैं - और कोई नहीं, कोई नहीं, कोई नहीं - और मुहम्मद उस एक अल्लाह के पैगम्बर हैं" मैंने आज तक कोई एक भी इस्लामी व्यक्ति नहीं देखा जो खुद को "modern " दर्शाने के लिए इस बात पर लेशमात्र भी संदेह दिखाए |
** क्रिस्चियानिती का मानना है कि "प्रभु एक हैं | जीज़स उनके पुत्र हैं, जिन्होंने हम मनुष्यों के पापों से हमें छुडवाने के लिए सूली पर अपनी प्राण दी " - मैंने आजतक एक भी क्रिस्चियन को इस पर शक शुबहा दिखाते नहीं देखा |
** कोई सिख यदि ग्रन्थ साहब के आदेशों के पालन में कोई गलती कर देता है - तो गुरूद्वारे में जा कर अपनी सेवा पश्चात्ताप के रूप में करता है | बड़े बड़े ओहदे पर बैठे व्यक्ति भी वहां जाकर जूते तक साफ़ करने की सेवा, झाडू लगाने की सेवा देते हैं |
.......
सिर्फ हम ही ऐसे हैं, जो अपने ही विश्वासों पर हमेशा डांवाडोल होते रहते हैं | चारदीवारी के भीतर तो सब ठीक है - लेकिन सामाजिक रूप से हमें अपने विश्वासों को स्वीकारने में शर्म आती है | सार्वजनिक मंच पर हम "समझदार" हो जाते हैं जिनके लिए हमारे अवतार सिर्फ स्त्री पुरुष रह जाते हैं, और लक्ष्मी जी चंचला धन की देवी |
ऐसा क्यों ????
अगली बार हमारे आराध्यों को सिर्फ युगपुरुष या साधारण स्त्री भर के रूप में सार्वजनिक मंच पर कहने , बल्कि कहने /लिख देने से पहले सोचिये - क्या हम यही लिखना चाह रहे हैं ???????
क्या सच ही ऐसा है हमारे मन में ??????
क्या हम चाहते हैं कि हमारी अगली पीढ़ी हमारे आराध्यों को बस ऐसा ही सोचे कि वे युगपुरुष हैं ??????????
भगवद गीता से कहती हूँ - जब अर्जुन कृष्ण के सूर्य से पहले होने पर यह कह कर शंका जाहिर करते हैं कि आप तो अभी जन्मे हैं और सूर्य पुराने हैं तो कृष्ण कहते हैं :
मैं साधारण प्राणियों की तरह जन्म बंधन में / अज्ञान में नहीं, बल्कि अपनी मर्ज़ी से, किसी उद्देश्य को लेकर, अपनी प्रकृति को अपने अधीन कर कर जन्म लेता हूँ | जो मेरी दिव्यता को जानते हुए मुझमे शरणागत होते हैं, वे मुझे प्राप्त होते हैं | मैं इस संसार का रचयिता हूँ | मुझे कर्म affect नहीं करते - क्योंकि मैं उनमे लिप्त नहीं |
आगे यह भी कहा गया कि मैं तो अपनी दिव्यता को अपने अधीन कर के मानव रूप में आता हूँ, किन्तु मूर्ख जन मुझे मानव मात्र मान कर मेरी लीलाओं का (और मेरा) मज़ाक उड़ाते हैं |
क्या हम वैसे ही मूर्ख बनना चाहते हैं अपने आप को अपने आस पास के पढ़े लिखे समाज में समझदार स्थापित करने के लिए ?????????????

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