मोह-माया सब मिथ्या है, जगत मिथ्या है…. आदि आदि लगभग हर साधू-संत, ब्रह्मज्ञानियों से अक्सर सुनने को मिलता है , और आप देखेंगे कि इनमे से अधिकांश सारे ऐशो आराम भोग रहे होते हैं |
हाँ कुछ लोग हैं जो भांगधतूरे के नशे में मस्त नंगे या लंगोट डाले घूमते पाए जाते हैं , कुछ साधू संत ऐसे भी हैं जो हिमालय में या किसी बियाबान जंगल में ईश्वर को खोज रहे हैं |
लेकिन जैसे ही कोई कहता है वह ईश्वर को खोज रहा है मोह-माया को त्याग कर, तो लोग उसे महान समझ लेते हैं , जबकि वह ईश्वर के रूप में ऐश्वर्य को खोज रहा होता है |
बचपन से यह धारणा बैठा दी गयी होती है कि यह जगत मिथ्या है और जो कुछ यहाँ है उससे अधिक सुख व ऐश ईश्वर के पास ही मिल सकता है |
कहा जाता है कि वहां अप्सरायें हैं, संगीत है, सुख ही सुख है…. तो यह सब भौतिकतावादी मानसिकता के लोगों को बहुत आकर्षित करता है , जब वह यहाँ उतना सुख अर्जित नहीं कर पाता तो ऐश्वर्य की खोज में जंगलों में भटकने लगता है , लेकिन जिसने इसी जगत में ऐश्वर्य पा लिया हो वह ऐश्वर्य की खोज में कहीं भटकता नहीं मिलेगा ----- जैसे अदानी, अम्बानी, बिलगेट्स, जुकरबर्ग, टाटा …. आदि |
क्योंकि जितनी भी कल्पनाएँ स्वर्ग लोग के विषय में की गयीं हैं, वह सब तो पा रहे हैं इसी जगत में , विजय माल्या को ही देख लीजिये, हमेशा अप्सराओं से घिरे रहते हैं 😄😄😄😄😄😄........
तो ईश्वर की प्राप्ति का अर्थ है वह सुख जो आपको संतुष्टि प्रदान करे , कुछ लोग एक ही सरकारी नौकरी पर एक ही पोस्ट, एक ही कुर्सी पर पूरा जीवन बिता देते हैं… लोग उन्हें बहुत ही ईमानदार मानते हैं… तो वे अपनी जगह सही हैं |
उनका सुख बहुत सीमित है वे संतुष्ट हैं अपनी जगह |
कुछ लोग एक ही स्थान पर लंगोट बांधे कई वर्षों तक बैठे रहते हैं.. तो वह उनका सुख है, वे संतुष्ट हैं और एक आस बंधी है उनके भीतर कि इस जन्म में कष्ट भोग लो, स्वर्ग में तो सारे ऐश मिल ही जायेंगे और वह भी हमेशा के लिए |
यहाँ का सुख तो छूट जाएगा एक दिन, लेकिन स्वर्ग का सुख तो सनातन है सदाबहार है |
कुछ लोग जीवन मरण के चक्कर से ही परेशान है तो वे मोक्ष की कामना करते हैं , उन्हें लगता है कि बस मोक्ष मिल जाये आना जाना छूट जाये और ऊपर ऐश से रहेंगे 🙂|
हो सकता है मेरी बातें कई विद्वानों को हज़म न हो रहीं हों, लेकिन यही सत्य है , जो लोग ओशो को उनकी लक्ज़री लाइफ के लिए कोसते थे, वही रामदेव से खुश हैं क्योंकि वे एक कपड़े में घूमते हैं | लेकिन ओशो और रामदेव में अंतर है , ओशो की लक्ज़री उनके अध्यात्मिक ज्ञान के प्रसार के लिए था और रामदेव की लक्ज़री व्यापारिक लाभ के लिए , दोनों ही गलत नहीं है , ओशो ने ब्रह्म को चुना रामदेव ने भौतिकता को |
वैसे भी संन्यास कोई परम्परा नहीं है, बल्कि व्यक्ति को स्वयं से पहचान करने का अवसर प्रदान करने का एक मार्ग है , यदि कोई संन्यासी अध्यात्मिक मार्ग छोडकर भौतिकता या संसारिकता को अपनाना चाहता है तो वह गलत नहीं है ,, आजकल अधिकाँश साधू संन्यासी सांसारिक ही हैं, बस वे विवाह नहीं करते, बाकी तो सबकुछ करते हैं |
तो इनको ऐश्वर्य जब इसी जगत में मिल गया तो स्वर्ग या मोक्ष के चक्कर में पड़ेंगे क्यों ???????
विष्णु और लक्ष्मी की तस्वीर से भी यही दर्शाने का प्रयत्न किया गया है कि आपके भीतर ही ईश्वर का वास है .... आप यदि स्वयं को समृद्ध करते हैं तो लक्ष्मी यानि वैभव, धन संपत्ति आपकी सेवा करेगी | शेषनाग यानि विषाक्त प्राणी जैसे कि बड़े बड़े अपराधी, गुंडे-बदमाश, आपकी सुरक्षा करेंगे… यह तो आप लोग प्रत्यक्ष देख ही सकते हैं कि सत्ता व दौलत जिसके पास होती है उसके लिए बड़े से बड़े गुंडे-मवाली अपराधी जान लेने और देने के लिए तैय्रार रहते हैं |
तो विष्णु की तरह वैभव शाली होना ही ईश्वर की प्राप्ति है और जो ईश्वर की प्राप्ति कर लेता है उसकी सारी दुनिया जय जयकार करती है |
माया-मोह का त्याग करके फिर माया मोह में फंसने के सपने देखने से अच्छा है इसी जगत में माया-मोह को स्वीकार लो, मरने के बाद पता नहीं ऊपर कुछ मिलेगा भी या नहीं |


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