हैरान होती हूँ मैं कि कई शताब्दियाँ गुजर गयीं लोगों को धार्मिकईश्वरीय  किताबों को ढोते हुए, रटते हुए, लेकिन…..धर्म समझ में नहीं आया | 

मत, पंथ, सम्प्रदाय, परम्पराओं और कर्मकांडों को लोगों ने धर्म बना दिया |
धर्म को अंग्रेजी में रिलिजन (religion) और ऊर्दू में मजहब कहते हैं, लेकिन यह उसी तरह सही नहीं ‍है जिस तरह की दर्शन को फिलॉसफी (philosophy) कहा जाता है। दर्शन का अर्थ देखने से बढ़कर है। उसी तरह धर्म को समानार्थी रूप में रिलिजन या मजहब कहना हमारी मजबूरी है। मजहब का अर्थ संप्रदाय होता है। उसी तरह रिलिजन का समानार्थी रूप विश्वास, आस्था या मत हो सकता है, लेकिन धर्म नहीं। हालांकि मत का अर्थ होता है विशिष्ट विचार। कुछ लोग इसे संप्रदाय या पंथ मानने लगे हैं, जबकि मत का अर्थ होता है आपका किसी विषय पर विचार।
यतो ऽभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।
धर्म वह अनुशासित जीवन क्रम है, जिसमें लौकिक उन्नति (अविद्या) तथा आध्यात्मिक परमगति (विद्या) दोनों की प्राप्ति होती है।
धर्म का शाब्दिक अर्थ : धर्म एक संस्कृत शब्द है। धर्म का अर्थ बहुत व्यापक है। ध + र् + म = धर्म। ध देवनागरी वर्णमाला 19वां अक्षर और तवर्ग का चौथा व्यंजन है। भाषाविज्ञान की दृष्टि से यह दन्त्य, स्पर्श, घोष तथा महाप्राण ध्वनि है। संस्कृत (धातु) धा + ड विशेषण- धारण करने वाला, पकड़ने वाला होता है। जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है। पृथ्वी समस्त प्राणियों को धारण किए हुए है। जैसे हम किसी नियम को, व्रत को धारण करते हैं इत्यादि। इसका मतलब धर्म का अर्थ है कि जो सबको धारण किए हुए है अर्थात धारयति- इति धर्म:!। अर्थात जो सबको संभाले हुए है। सवाल उठता है कि कौन क्या धारण किए हुए हैं? धारण करना सही भी हो सकता है और गलत भी।

मनु ने धर्म के दस लक्षण बताये हैं:
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो, दशकं धर्मलक्षणम् ॥
(धृति (धैर्य), क्षमा (दूसरों के द्वारा किये गये अपराध को माफ कर देना, क्षमाशील होना), दम (अपनी वासनाओं पर नियन्त्रण करना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (अन्तरङ्ग और बाह्य शुचिता), इन्द्रिय निग्रहः (इन्द्रियों को वश मे रखना), धी (बुद्धिमत्ता का प्रयोग), विद्या (अधिक से अधिक ज्ञान की पिपासा), सत्य (मन वचन कर्म से सत्य का पालन) और अक्रोध (क्रोध न करना) ; ये दस धर्म के लक्षण हैं।)
जो अपने अनुकूल न हो वैसा व्यवहार दूसरे के साथ नहीं करना चाहिये – यह धर्म की कसौटी है।
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रुत्वा चैव अनुवर्त्यताम्।
आत्मनः प्रतिकूलानि, परेषां न समाचरेत् ॥
(धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर उस पर चलो ! अपने को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नही करना चाहिये।)
एक  लेख पढ़ा मैं जिसमें कहा गया;
धर्म के मुख्यतः दो आयाम हैं। एक है संस्कृति, जिसका संबंध बाहर से है। दूसरा है अध्यात्म, जिसका संबंध भीतर से है। धर्म का तत्व भीतर है, मत बाहर है। तत्व और मत दोनों का जोड़ धर्म है। तत्व के आधार पर मत का निर्धारण हो, तो धर्म की सही दिशा होती है। मत के आधार पर तत्व का निर्धारण हो, तो बात कुरूप हो जाती है।

मैं उपरोक्त सभी व्याख्याओं को सम्पूर्ण नहीं मानती | सम्पूर्ण व्याख्या या परिभाषा धर्म की केवल यही है कि सृष्टि और स्वयं के हित और विकास के लिए किये जाने वाले सभी कर्म धर्म हैं।  

लेकिन यह भी संपूर्ण व्याख्या नहीं है क्योंकि ‘धर्म’शब्द  बहुत ही व्यापक है |
जब हम कहते हैं ‘किये जाने वाले’ कर्म, तो उसमें भी कर्ता का भाव आ जाता है | जहाँ कर्ता का भाव आया वहीँ धर्म तिरोहित हुआ और कर्मकांड जुड गया | जहाँ कर्मकांड जुड़ा वहीँ वह परमपरा बन जाएगा, ढोंग और पाखंड शुरू हो जायेगा | धर्म कोई ढोंग या पाखंड नहीं है और न ही कोई बलात किये जाने वाले कर्म | धर्म स्वाभाविक है, स्वतः स्फूर्त है, स्वचालित है, उर्जा है, सनातन है |
धर्म का एक रूप है गुरुत्वाकर्षण बल | धर्म का एक रूप है प्रेम | धर्म का एक रूप है करुणा | धर्म का एक रूप है ममता | धर्म का एक रूप है सहयोगिता | धर्म का एक रूप है सेवा | ऐसे कई रूप हैं और सभी को मिलाकर एक नाम दिया गया धर्म | धारण करने योग्य जो है वही धर्म है, वाली व्याख्या कहीं से मेरे गले नहीं उतरता | 

धारण तो कोई कुछ भी कर सकता है |
 क्या भगवा धारण करना धर्म है ???????

 क्या टोपी-तिलक धारण करना धर्म है ????????
 क्या AK47 या हथगोला धारण करना धर्म है ??????????
 क्या पिज़्ज़ा-बर्गर धारण करना धर्म है ?????????
नहीं इनमें से कोई भी धर्म नहीं है | धर्म है सहयोगी होना, धर्म है दया व प्रेम का भाव रखना और धर्म सार्वभौमिक है, सनातन है | कोई इंसानों पर ही लागू नहीं है, आप पशु-पक्षियों को भी इसका पालन करते हुए देख सकते हैं | ये कोई कर्मकांड या मान्यता नहीं है | जैसे यदि आप पर कोई आक्रमण कर दे, तो सबसे पहले आप अपना बचाव करेंगे यह धर्म है | और यह सभी जीव जंतुओं का स्वाभाविक गुण है | या कोई रटाने सिखाने वाला ज्ञान नहीं है | न ही कोई  किताबों को पढ़कर कोई सीखता है | ये सब जन्मजात सभी प्राणी सीखे हुए ही आते हैं |
यह तो था धर्म अब आते हैं भौतिकता पर
भौतिक यानी पदार्थ तत्व | यानि वे सब चीजें जिसे हम देख सकते हैं, अनुभव कर सकते हैं, छू सकते हैं | अध्यात्मिक लोग अक्सर भौतिकता से दूर होने पर ही आध्यात्म की उंचाई पर पहुँचने की बात करते हैं | लेकिन यहाँ भी वे गलत हैं | जिस दिन भौतिक से वे दूर होंगे, उस दिन उनका शरीर भी नहीं रहेगा | क्योंकि शरीर भी भौतिक ही है | भूख लगेगी तो भौतिक पदार्थ ही लेना पड़ेगा भोजन में | प्यास लगेगी तो भौतिक जल ही लेना पड़ेगा |
लोग धन, स्त्री, परिवार, सुख सुविधाओं को भौतिक मानते हैं इसलिए इनसे दूर होने पर ही मोक्ष की प्राप्ति होगी ऐसा मानते हैं | जबकि यह संभव ही नहीं हैं | 

“भौतिक जगत और अध्यात्मिक जगत दो आयाम हैं | एक ही सिक्के के दो पहलू हैं | एक भी खोटा निकला तो सिक्का मूल्यहीन हो जाएगा |”
क्योंकि जब आप आर्थिक रूप से संपन्न होंगे, जब आप सामाजिक रूप से संपन्न होंगे, जब आप शारीरिक रूप से संतुष्ट होंगे, तब आप धार्मिक होंगे | अन्यथा आप कर्मकाण्डी बनकर रह जायेंगे | आप परम्परा निभाते रह जायेंगे | आप ढोंग और पाखंड में उलझ जायेंगे | आप न तो आध्यात्मिक रूप से उन्नत हो पाएंगे और न ही मानसिक सुख व शान्ति प्राप्त कर पाएंगे | तब आप केवल दिखावे का जीवन जियेंगे | तब आप केवल झूठी मुस्कान और झूठी धार्मिकता ओढ़े घूमते रहेंगे | इसीलिए भौतिकता का त्याग करके आध्यात्मिक उत्थान पाने के भ्रम में मत पड़िए | 


यह विडियो देखिये..इसमें सड़क चलते एक महिला को एक कौवा परेशानी में घिरा मिला |उसने तुरंत उसकी सहायता की और कौए को परेशानी से मुक्ति दिलाई | क्या आप अपने आसपास कभी ऐसी घटना देख पाते हैं ?????????

 यहाँ तो सड़क में कोई इंसान भी घायल पड़ा दिख जाए तो दुम दबाकर भागते हैं धार्मिक लोग | 

और फिर डायलॉग मारते हैं कर्म ही हमारा धर्म है हम तो कर्मवादी लोग हैं |
ऐसा क्यों होता है कभी सोचा है आपने ?
ऐसा इसलिए होता है क्योंकि धार्मिकता का ढोंग करने वाला समाज धार्मिक नहीं हुआ है | केवल धार्मिकता को ओढ़े हुए घूम रहा है | धर्म से तो परिचय भी नहीं हुआ होता इन तथाकथित धार्मिकों का | ये साम्प्रदायिक उत्पात करने वाले, ये हिन्दू-मुस्लिम के नाम से लड़ने वाले कोई धार्मिक लोग होते हैं ??????????
नहीं ! ये लोग कहीं से भी धार्मिक नहीं हैं | ये उन भूखे नंगों की भीड़ है जो आर्थिक रूप से समृद्ध नहीं हो पाए | अपनी कुंठाएं छुपाने के लिए ये धर्म रक्षक बने घूमते हैं, मंदिरों मस्जिदों में चक्कर लगाते फिरते हैं | मंदिर भी जायेंगे तो कुछ न कुछ मांगने के लिए | पूजा भी करेंगे तो किसी न किसी लालच या कामना की पूर्ति के आस में | ऐसे दीन-हीन दरिद्रों के पास कभी धर्म टिकता है ??????????

 ये लोग दान भी करेंगे तो किसी लाभ के लिए, वरना तो दान भी न करें | जब ऐसे लोग सड़क पड़े किसी घायल को देखते हैं, तब इनका धर्म तिरोहित हो जाता है और ये दुम दबाकर भाग निकलते हैं | तब इनको पुलिस का डर दिखाई देने लगता है, तब इनको क़ानूनी अडचने दिखाई देने लगती है | लेकिन यही लोग जब दंगों में उतरेंगे, तब इनको न कानून का डर दिखता है, न ही पुलिस का |
तो जो समृद्ध होगा आंतरिक रूप से, जो सुखी होगा आतंरिक रूप से वह धार्मिक होगा | बाहर से चाहे वह दरिद्र हो, बाहर से चाहे वह भूखा हो…लेकिन भीतर से यदि वह सुखी है तो वह धार्मिक होगा | तब वह सहयोगी होगा, तब वह दूसरों के लिए सहयोगी होगा बिना किसी स्वार्थ के |
आशा है इस लेख को पढ़ने के बाद अब आप सम्प्रदाय, पंथ, मजहब और रिलिजन को धर्म नहीं कहेंगे | धर्म केवल धर्म है उसे धर्म ही रहने दें और खुद को धार्मिक बनायें न कि साम्प्रदायिक | और जब समाज धार्मिक बनेगा तब साम्प्रदायिक शक्तियाँ हमें न तो आपस में लड़ा पाएंगी और न ही धर्म और ईश्वर के नाम पर दंगा-फसाद कर पाएंगी |
एक बात और कहना चाहती  हूँ कि केवल कर्म करना ही धर्म नहीं है | अकर्मण्य रहना भी धर्म है | कर्म केवल अकर्मण्य होने के लिए ही किया जाना चाहिए न कि कर्म करने के लिए कर्म किया जाना चाहिए | कर्म उतना ही करें, जिससे आपकी आवश्यकताएं पूरी हों | ताकि आप अधिक से अधिक समय अपने जीवन का आनंद ले सकें, इस जीवन की खुशियों, अपनी उपलब्धियों, समृद्धियों को भोग सकें |

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