★ भागवत सिद्धांत दर्पण- 1
★ सत्संग/कथा ये सब साधन साध्य नही बल्कि कृपा साध्य है--- हमे अपने साधन के बल पर सत्संग नही मिलता बल्कि प्रभु की कृपा से हमे सत्संग श्रवण करने को मिलता है-- गोस्वामी जी ने कहा की "एहि फल साधन ते नहि होई,,तुम्हरी कृपा पावे कोई कोई"- अर्थात् सत्संग रुपि फल किसी साधन का फल नही बल्कि भगवद्कृपा का फल है-- यही बात मानस मे कही गयी की "बिनु सत्संग विवेक न होई,,राम कृपा बिन सुलभ न सोई"-- अर्थात् सत्संग राम कृपा से प्राप्त होता है-- शास्त्रो मे भी एक वाक्य मिलता है की "दुर्लभं त्रयमवैतत् दैवानुग्रहहेतुकम्-- मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुष संश्रय:"-- अर्थात् भगवद्कृपा के तीन लक्षण है-- पहला तो मनुष्य शरीर भगवद्कृपा से मिला है,,दुसरा अपने कल्याण की भावना जागृत होना भी भगवद्कृपा का परिणाम है ओर तीसरी बात महापुरुषो का संग अर्थात् कथा भी भगवद्कृपा का परिणाम है-- ईसलिए भागवत को रसपान करने से पहले ये सिद्धांत हमेशा ध्यान मे रखना चाहिये की ये भागवत हमे प्रभु कृपा से श्रवण करने को मिली है-- अपनी मेहनत का अभिमान नही होना चाहिये--क्योकि हमे अपने साधन/पुरुषार्थ के बल पर सत्संग नही मिलता-- पूज्य गुरुदेव बताया करते है की "तुम आये नही हो बल्कि लाये गये हो --ओर तुम बैठे नही हो बल्कि बिठाये गये हो"--- अर्थात् भगवान जिसको खिंचते है वही सत्संग मे आ पाता है--
2-- दूसरा सिद्धांत हमेशा याद रखना चाहिये की कथा को जब हम सुनें तो केवल सुनें नही अपितु कथा को पीयें-- क्योकि श्रवण से ज्यादा पीने पर बल दिया गया है--
★"सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भावती कथा"--
★ पिबत भागवतं रसमालयं
★ सेवाकथारसमहो नितरां पिबत्वं
अर्थात् पीने पर बल दिया गया है ओर कथा को बिना पिये जीवन की व्यथा नही जाएगी-- जैसे मान लो कोई व्यक्ति मदिरा को गले तक रखे ओर फिर वापिस बाहर निकाल दे --तो जब तक मदिरा गले से नीचे नही जाएगी तब तक उसे नशा नही चढेगा -- उसी प्रकार जब तक कथा ह्रदय मे नही जाएगी तो ह्रदय के विकार बाहर कैसे जाएंगे--- आनंद कैसे आएगा-- ईसलिए कथा को पीयो-- एक उदाहरण दिया जाता है की मान लीजिये की किसी व्यक्ति के पांव मे थोडी चोट लग जाये तो डाक्टर उसे एक दवाई दे देता है ओर कहता है की ईस दवा को पांव पर लगा लेना-- अब जरा सोचिये की अगर वो ईंसान उस दवा को पांव की जगह हाथ पर लगाने लगे तो क्या चोट ठीक होगी??? नही होगी-- उसी प्रकार हमारे जीवन मे जो अंधकार है वो तो तब दूर होगा जब सत्संग रुपि प्रकाश हमारे जीवन मे उतर जाएगा-- ह्रदय मे जब कथा रुपि प्रकाश जाएगा तो अशांति रुपि अंधकार स्वत: ही भाग जाएगा --
3--तीसरी बात हमेशा याद रखें की बिना सत्संग के जीवन मे शांति नही आयेगी-- कभी कभी लोग कहते है की सत्संग क्यो जरुरी है??? ईसका जबाव रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड मे दिया गया की "विमुख राम सुख पाव न कोई"- अर्थात् भगवान से विमुख होकर किसी को सुख नही मिल सकता-- जैसे सुर्य के ताप का अनुभव करने के लिए सुर्य के सन्मुख होना पडता है उसी प्रकार जीवन मे आनंद/शांति पाने के लिए आनंदसिंधु शांति के धाम प्रभु के सन्मुख होना ही पडेगा-- संसार के सन्मुख होकर आनंद नही मिलेगा-- क्योकि संसार असार है,दुखरुपि है-- असार का अर्थ होता है जहां सार अर्थात् रस ना हो-- तो जो चीज जहां नही है वहां ढूंढने से वो नही मिलेगी-- जैसे जुते चप्पल की दूकान पर मिठाई नही मिलती उसी प्रकार ईस दुखरुपि/असार संसार मे आनंद रुपि मिठाई कैसे मिलेगी-- आनंद तो वहां मिलेगा जहां आनंद होगा-- ओर आनंद केवल प्रभु चरणो मे है-- क्योकि प्रभु आनंद के /शांति के धाम है (विशुद्ध सत्वं तव धाम शांतम्--दशम् स्कंध)--- अब प्रश्न उठता है की अगर भगवान से विमुख होकर सुख नही मिल सकता तो संसार के प्राणियो को जो संसार मे सुख मिल रहा है वो कैसा है?? ईसका जबाव भी गोस्वामी जी रामचरितमानस मे देते हुए कहते है की " भक्ति हीन गुण सब सुख एसे,,लवण बिना बहु व्यंजन जैसे"-- अर्थात् जिस तरह व्यंजनो मे नमक ना डाला जाए तो व्यंजन फीके लगते है,,रसहीन लगते है-- उसी प्रकार जब तक जीवन मे भक्ति रुपि लवण नही आयेगा तब तक संसार के भोगो को भोगते हुए भी मन परेशानी मे /अशांति मे रहेगा-- ईसलिए भक्ति रुपि लवण का होना बहुत जरुरी है-- ईसलिए कहा गया की "विमुख राम सुख पाव न कोई"---
ओर एक बहुत प्यारी बात कही गयी की "सुखी मीन जहां नीर अगाधा,,जिमि हरि शरण न एकऊ बाधा"-- अर्थात् मछली केवल वहीं आनंद से रह पाती है जहां पानी ज्यादा मात्रा मे हो-- अगर आप मछली को छोटे से पानी के बर्तन मे रखोगे मे मछली सांस तो ले लेगी लेकिन पुरी तरह सुखी नही रह पायेगी क्योकि मंछली को बंधन पसंद नही है-- पर अगर उसी मछली को समुंद्र मे छोड दोगे तो मछली सुखी रहेगी-- उसी प्रकार से मनुष्य संसार के छोटे छोटे सुखो मे फंसा रहता है ओर परेशान रहता है लेकिन जब मनुष्य अपना जीवन उस अनंत परमात्मा को सौंप देगा तो मनुष्य आनंद मे जीवन जीने लगता है-- ईसलिए तीसरी बात हमेशा याद रखनी चाहिये की केवल सत्संग ही मन की शांति को प्रदान करता है---- ...............
...बोलिए श्रीमद्भागवत महापुराण की जय-
कृष्ण भगवान की जय--
जय जय श्री राधे...................

★ सत्संग/कथा ये सब साधन साध्य नही बल्कि कृपा साध्य है--- हमे अपने साधन के बल पर सत्संग नही मिलता बल्कि प्रभु की कृपा से हमे सत्संग श्रवण करने को मिलता है-- गोस्वामी जी ने कहा की "एहि फल साधन ते नहि होई,,तुम्हरी कृपा पावे कोई कोई"- अर्थात् सत्संग रुपि फल किसी साधन का फल नही बल्कि भगवद्कृपा का फल है-- यही बात मानस मे कही गयी की "बिनु सत्संग विवेक न होई,,राम कृपा बिन सुलभ न सोई"-- अर्थात् सत्संग राम कृपा से प्राप्त होता है-- शास्त्रो मे भी एक वाक्य मिलता है की "दुर्लभं त्रयमवैतत् दैवानुग्रहहेतुकम्-- मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुष संश्रय:"-- अर्थात् भगवद्कृपा के तीन लक्षण है-- पहला तो मनुष्य शरीर भगवद्कृपा से मिला है,,दुसरा अपने कल्याण की भावना जागृत होना भी भगवद्कृपा का परिणाम है ओर तीसरी बात महापुरुषो का संग अर्थात् कथा भी भगवद्कृपा का परिणाम है-- ईसलिए भागवत को रसपान करने से पहले ये सिद्धांत हमेशा ध्यान मे रखना चाहिये की ये भागवत हमे प्रभु कृपा से श्रवण करने को मिली है-- अपनी मेहनत का अभिमान नही होना चाहिये--क्योकि हमे अपने साधन/पुरुषार्थ के बल पर सत्संग नही मिलता-- पूज्य गुरुदेव बताया करते है की "तुम आये नही हो बल्कि लाये गये हो --ओर तुम बैठे नही हो बल्कि बिठाये गये हो"--- अर्थात् भगवान जिसको खिंचते है वही सत्संग मे आ पाता है--
2-- दूसरा सिद्धांत हमेशा याद रखना चाहिये की कथा को जब हम सुनें तो केवल सुनें नही अपितु कथा को पीयें-- क्योकि श्रवण से ज्यादा पीने पर बल दिया गया है--
★"सदा सेव्या सदा सेव्या श्रीमद्भावती कथा"--
★ पिबत भागवतं रसमालयं
★ सेवाकथारसमहो नितरां पिबत्वं
अर्थात् पीने पर बल दिया गया है ओर कथा को बिना पिये जीवन की व्यथा नही जाएगी-- जैसे मान लो कोई व्यक्ति मदिरा को गले तक रखे ओर फिर वापिस बाहर निकाल दे --तो जब तक मदिरा गले से नीचे नही जाएगी तब तक उसे नशा नही चढेगा -- उसी प्रकार जब तक कथा ह्रदय मे नही जाएगी तो ह्रदय के विकार बाहर कैसे जाएंगे--- आनंद कैसे आएगा-- ईसलिए कथा को पीयो-- एक उदाहरण दिया जाता है की मान लीजिये की किसी व्यक्ति के पांव मे थोडी चोट लग जाये तो डाक्टर उसे एक दवाई दे देता है ओर कहता है की ईस दवा को पांव पर लगा लेना-- अब जरा सोचिये की अगर वो ईंसान उस दवा को पांव की जगह हाथ पर लगाने लगे तो क्या चोट ठीक होगी??? नही होगी-- उसी प्रकार हमारे जीवन मे जो अंधकार है वो तो तब दूर होगा जब सत्संग रुपि प्रकाश हमारे जीवन मे उतर जाएगा-- ह्रदय मे जब कथा रुपि प्रकाश जाएगा तो अशांति रुपि अंधकार स्वत: ही भाग जाएगा --
3--तीसरी बात हमेशा याद रखें की बिना सत्संग के जीवन मे शांति नही आयेगी-- कभी कभी लोग कहते है की सत्संग क्यो जरुरी है??? ईसका जबाव रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड मे दिया गया की "विमुख राम सुख पाव न कोई"- अर्थात् भगवान से विमुख होकर किसी को सुख नही मिल सकता-- जैसे सुर्य के ताप का अनुभव करने के लिए सुर्य के सन्मुख होना पडता है उसी प्रकार जीवन मे आनंद/शांति पाने के लिए आनंदसिंधु शांति के धाम प्रभु के सन्मुख होना ही पडेगा-- संसार के सन्मुख होकर आनंद नही मिलेगा-- क्योकि संसार असार है,दुखरुपि है-- असार का अर्थ होता है जहां सार अर्थात् रस ना हो-- तो जो चीज जहां नही है वहां ढूंढने से वो नही मिलेगी-- जैसे जुते चप्पल की दूकान पर मिठाई नही मिलती उसी प्रकार ईस दुखरुपि/असार संसार मे आनंद रुपि मिठाई कैसे मिलेगी-- आनंद तो वहां मिलेगा जहां आनंद होगा-- ओर आनंद केवल प्रभु चरणो मे है-- क्योकि प्रभु आनंद के /शांति के धाम है (विशुद्ध सत्वं तव धाम शांतम्--दशम् स्कंध)--- अब प्रश्न उठता है की अगर भगवान से विमुख होकर सुख नही मिल सकता तो संसार के प्राणियो को जो संसार मे सुख मिल रहा है वो कैसा है?? ईसका जबाव भी गोस्वामी जी रामचरितमानस मे देते हुए कहते है की " भक्ति हीन गुण सब सुख एसे,,लवण बिना बहु व्यंजन जैसे"-- अर्थात् जिस तरह व्यंजनो मे नमक ना डाला जाए तो व्यंजन फीके लगते है,,रसहीन लगते है-- उसी प्रकार जब तक जीवन मे भक्ति रुपि लवण नही आयेगा तब तक संसार के भोगो को भोगते हुए भी मन परेशानी मे /अशांति मे रहेगा-- ईसलिए भक्ति रुपि लवण का होना बहुत जरुरी है-- ईसलिए कहा गया की "विमुख राम सुख पाव न कोई"---
ओर एक बहुत प्यारी बात कही गयी की "सुखी मीन जहां नीर अगाधा,,जिमि हरि शरण न एकऊ बाधा"-- अर्थात् मछली केवल वहीं आनंद से रह पाती है जहां पानी ज्यादा मात्रा मे हो-- अगर आप मछली को छोटे से पानी के बर्तन मे रखोगे मे मछली सांस तो ले लेगी लेकिन पुरी तरह सुखी नही रह पायेगी क्योकि मंछली को बंधन पसंद नही है-- पर अगर उसी मछली को समुंद्र मे छोड दोगे तो मछली सुखी रहेगी-- उसी प्रकार से मनुष्य संसार के छोटे छोटे सुखो मे फंसा रहता है ओर परेशान रहता है लेकिन जब मनुष्य अपना जीवन उस अनंत परमात्मा को सौंप देगा तो मनुष्य आनंद मे जीवन जीने लगता है-- ईसलिए तीसरी बात हमेशा याद रखनी चाहिये की केवल सत्संग ही मन की शांति को प्रदान करता है---- ...............
...बोलिए श्रीमद्भागवत महापुराण की जय-
कृष्ण भगवान की जय--
जय जय श्री राधे...................

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