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राम हमारी परंपरा के हीरो या महानायक हैं। हमारा कोई दूसरा नेता हीरो नहीं, कोई उद्योगपति नहीं, कोई किसान, कोई क्रिकेटर हीरो नहीं है। संपूर्ण चिंतन परंपरा का, संपूर्ण भारतीय वैदिक संस्कृति का, हमारा जो भी कुछ है, अनुपम है, अनुकरणीय है दुनिया के लिए वह वरदान और अमृत स्वरूप है, उसको कहते हैं राम और कुछ नहीं। जब उस राम के चरित्र का गायन हुआ, तो उसमें सभी की बात आ गई। गौतम बुद्ध के बाद यदि कोई समन्वयी उत्पन्न हुआ, तो वह गोस्वामी तुलसीदास हुए, जो राम को लोकनायक के रूप में हमारे सामने लाए। राम परम समन्वयी हैं। कौशल्या और कैकेयी को भी जोड़ देते हैं। उत्तर और दक्षिण को भी जोड़ देते हैं। विश्वामित्र और वशिष्ठ को जोड़ देते हैं। यह समन्वय का काम कोई अमेरिका नहीं करेगा, जब करेगा, तो भारत ही करेगा। राम जी ने अयोध्या से एक रुपया नहीं लिया और वही खाया, जो साथ के लोग खा रहे थे। सबके साथ वृक्ष के नीचे सोते थे और दुनिया के सबसे बड़े आतंकवादी को अपनी वानर सेना के साथ मिलकर मार गिराया। यह घटना फिर कहीं नहीं दुहराई जाएग, यदि दुहराई जाएगी, तो त्रेता में ही दुहराई जाएगी। कलयुग में दुहराई जाएगी, तो भारत में ही दुहराई जाएगी और कहीं नहीं। जब वानर जा रहे थे सीता जी को खोजने के लिए और जब जा रहे थे युद्ध के लिए, तब दोनों बार तुलसीदास लिखते हैं, एक भी सैनिक सहयोगी ऐसा नहीं था, जिसे राम जी ने प्यार से देखा नहीं हो और जिसको पूछा नहीं हो, तुम कैसे हो। यह कितनी बड़ी बात हो गई। अब तो कोई नेता अपने साथी को देखना ही नहीं चाहता। इसीलिए लोकतंत्र की सारी कठिनाइयां बढ़ती जा रही हैं। राम से सीखिए कि कैसे सेना बनाई जाती है,,,!!!! राम से सब सीखिए!!!!!!!!! हम जानते हैं कि शिव लिंग की स्थापना भी राम ने की और धनुष बाण से दुश्मन को पराजित भी किया। हम सिर्फ पूजा करना ही नहीं जानते। हम केवल अध्यात्म का व्याख्यान नहीं जानते, हम केवल चरित्रवान और सत्यवादी ही नहीं हैं। हमें यह भी आता है कि कैसे बाण को धनुष पर चढ़ाकर लोगों को राख बना दिया जाता है। हमें ऑपरेशन ब्लू स्टार भी आता है। विश्वामित्र जी कहा करते थे - एकत: चतुरो वेदान् एकत: सशरं धनु: । उभयोर्हि समर्थोस्मि शास्त्रादपि शरादपि।। यह रामजी का महत्व है और कितनी मर्यादा है। महर्षि वाल्मीकि ने कहा था कि मैं राम चरित्र नहीं लिख रहा हूं, जानकी चरित्र लिख रहा हूं। सीता का बड़ा त्याग है। मैं उनसे बड़ा प्रभावित हूं, इसीलिए वाल्मीकि रामायण के लिए कहा उन्होंने - महान चरित्र सीता का मैं लिख रहा हूं। गोस्वामी जी ने एक बड़ी परंपरा को तोड़ दिया। गणेश जी की वंदना से कोई काम शुरू होता है सनातन धर्म में, गोस्वामी जी ने कहा कि यह परंपरा नहीं चलेगी। स्त्री की वंदना से चलेगी - मंगलानां च कत्र्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ... भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ। यह नई बात हो गई। वंदे वाणीविनायकौ। तमाम परंपराओं को मारा कि राख कर दिया। सनातन धर्म की भी ढेर सारी परंपराओं को। कालिदास को उपमा का कवि कहते हैं। उन्होंने कहा कि नहीं-नहीं इनको उपमा देने नहीं आती है। नहीं तो संस्कृत में परंपरा थी - उपमा कालिदासस्य, भारवेरर्थ गौरवं, दण्डिन: पदलालित्यं, माघे सन्ति त्रयो गुणा:। ये पूरा मंत्र जपते हैं संस्कृत जगत के लोग। उन्होंने कहा कि नहीं गोस्वामी जी को जैसी उपमा आती है, कालिदास को नहीं आती। अपने रघुवंश महाकाव्य में कालिदास ने वंदना की, कहा कि पार्वती जी से युक्त भवानी शंकर की मैं वंदना करता हूं। उन्होंने कहा कि जल और तरंग को जो सम्बंध है, वही सम्बंध भवानी और शंकर का। वही सम्बंध राम और सीता का है, दोनों एक ही हैं, जल और तरंग में कोई भेद नहीं है।

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क्या है कृष्ण का अर्थ ?????????????  कृष धातु का एक अर्थ है खेत जोतना ,दूसरा अर्थ है आकर्षित करना।  कृष्ण का अर्थ है विश्व के प्राण ,उसकी आत्मा।  कृष्ण का तीसरा अर्थ है वह तत्व जो सबके 'मैं पन ' में रहता है।  मैं हूँ ,क्योंकि कृष्ण है। सम्पूर्ण संसार के प्राण हैं कृष्ण  हम सभी समय -समय पर द्वेष वैमनस्य ,क्रोध ,भय ,ईर्ष्या आदि के कारण दुखी होते हैं। जब हम दुखी होते हैं तब यह दुःख अपने तक ही सीमित नहीं रखते। हम औरों को भी दुखी बनाते हैं। जब कोई व्यक्ति दुखी होता है तो आसपास के सारे वातावरण को अप्रसन्न बना देता है ,व उसके सम्पर्क में आने वाले लोगों पर इसका असर होता है। सचमुच यह जीवन जीने का तरीका नहीं है।  कृष्ण का अर्थ ???????  वे जो खींच लेते हैं ,वे जो प्रत्येक को अपनी ओर आकर्षित करते हैं ,जो सम्पूर्ण संसार के प्राण हैं -वही हैं कृष्ण। कृष्ण शब्द के अनेक  अर्थ हैं।  कृष धातु का एक अर्थ है खेत जोतना ,दूसरा अर्थ है आकर्षित करना। कृष्ण  का अर्थ है विश्व के प्राण ,उसकी आत्मा। कृष्ण का तीसरा अर्...
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सब कुछ कृष्ण का कृष्ण कहते हैं '-जो कुछ भी हम स्पर्श करते हैं ,जो भी हम इस विश्व में देखते हैं -वह सब कुछ कृष्ण का ही है। तुम अपनी इच्छाओं और वृत्तियों के अनुसार उनसे जो भी चाहते हो ,तुम पाओगे।तुम जो धन मांगते हो तुम धन पाओगे ,किन्तु उनको नहीं पाओगे ,क्योंकि तुम धन मांगते हो उनको नहीं। तुम उनसे यदि नाम और यश मांगोगे तो वह भी मिलेगा ,किन्तु वह नहीं मिलेंगे ,क्योंकि तुम उनको नहीं मांगते हो। तुम उनके द्वारा कुछ मांगते हो। यदि तुम चाहते हो कि वे तुम्हारे शत्रुओं को नष्ट  कर दें और तुम धर्म के पथ पर हो ,तुम्हारी मांग उचित है तो वे तुम्हारे शत्रुओं का नाश कर देंगे किन्तु तुम उन्हें नहीं पाओगे ,क्योंकि कि तुम उन्हें नहीं मांगते हो। तुम यदि उनसे मुक्ति और मोक्ष मांगते हो और यदि तुम योग्य पात्र हो तो तुम उनसे प्राप्त कर लोगे ,किन्तु उनको नहीं पा सकोगे क्योंकि तुमने उन्हें नहीं माँगा। अत : एक बुद्धिमान साधक कहेगा -'मैं तुम्हें ही चाहता हूँ ,और किसी को नहीं चाहता और मैं तुम्हें क्यों चाहता हूँ ?इसलिए नहीं कि तुम्हारी उपस्थिति मुझे सुख देगी ,बल्कि इसलिए कि तुम्हारी उपस्थिति मुझे तुम्हारी...
श्रीमद्भागवत का अर्थ प्रभु के स्मरण मात्र से ही लोक -परलोक सुधर जाते हैं। इस मृत्यु  लोक से कुछ भी साथ  नहीं जाता ,अगर जाता है तो केवल कर्म का फल। भागवत की कथा का वाचन और श्रवण दोनों ही फलदायी हैं। प्रभु की स्तुति ,सत्संग और कर्म ही साथ रहते हैं।इसलिए जितना भी  कर सको और उनका नाम जप सको उतना अधिक लाभकारी है। प्रभु की कथा श्रवण करने और उनके स्मरण से अपना लोक और परलोक सुधारें ,राधे राधे का जाप करें।                    कृष्ण यानी आकर्षित करने वाला   श्रद्धा  से पुकारने पर भगवान दौड़े चले आते हैं।  जिस प्रकार गज की पुकार पर भगवान श्री नारायण दौड़े -दौड़े आये ,उसी प्रकार श्रद्धा से यदि कोई उन्हें पुकारता है तो वे दौड़े चले आते हैं।                           न स गर्भ गता भूया : मुक्ति भागी न संशय : कौशिकी संहिता में लिखा है कि श्रीमद्भागवत की कथा ही अमर कथा है। भगवान शिव ने पार्वती को अमर कथा सुनाई ,ये तो हम बार बार सुनते रहते हैं ...
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माँ दुर्गा के महात्म्य का ग्रन्थ सप्तशती शाक्त संप्रदाय का सवार्धिक प्रचलित ग्रन्थ है और यह भी निर्विवाद सत्य है कि जितना शाक्त सम्पद्रय में है उतना ही शैव-वैष्णव और अन्य संप्रदाय में भी है सभी संप्रदाय में समान रूप से प्रचलित होने वाला एक मात्र ग्रन्थ सप्तशती है पाश्चात्य के प्रसिद्द विद्वान और विचारक मि. रोला ने अपने विचारों में सहर्ष स्वीकार किया है कि “सप्तशती के नर्वाण मन्त्र को (ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै) संसार की सर्वश्रेष्ठतम प्रार्थनाओं में परिगणित करता हूँ” | सौम्या सौम्य तरा शेष सौमेभ्यस्वती सुंदरी ----- “देवि तुम सौम्य और सौम्यतर तो हो ही, परन्तु इतना ही, जितने भी सौम्य पदार्थ है, तुम उन सब में सब की अपेक्षा अधिक सुंदरी हो” | ऋषि गौतम मार्कण्डेय आठवे मनु की पूर्व कथा के माध्यम से नृपश्रेष्ठ सुरथ एवं वणिक श्रेष्ठ समाधी को पात्र बनाकर मेधा ऋषि के मुख से माँ जगदम्बा के जिन स्वरूपों का वर्णन किया गया है .. वह सप्तसती का मूल आख्यान है | शक्ति-शक्तिमान दोनों दो नहीं है अपितु एक ही हैं शक्ति सहित पुरुष शक्तिमान कहलाता है जैसे ‘शिव’ में इ शक्ति है---यदि (शिव) में से ‘इ’ ...
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तीन पदार्थ हैं- एक ईश्वर, एक जीवात्मा,एक प्रकृति। इन तीनों के बारे में विचार करेंगे, बारी-बारी से चिंतन करेंगे। फिर कोई न कोई निर्णय हो जाएगा। पहला प्रश्न- क्या जीवात्मा सृष्टि बना सकता है ????????? उत्तर है- जीवात्मा सृष्टि को नहीं बना सकता। तारों को नहीं बना सकता, पृथ्वी को नहीं बना सकता। यह उसके वश की बात नहीं है। उसमें इतनी शक्ति, बु(ि व योग्यता ही नहीं है। तो तीन में से एक का निर्णय तो हो गया, कि जीवात्मा सृष्टि नहीं बना सकता। दूसरा प्रश्न- क्या प्रकृति स्वयं पृथ्वी बना सकती है???????? उत्तर है- कभी नहीं बना सकती। क्योंकि उसमें अक्ल ही नहीं है। सृष्टि की रचना को देखने से पता चलता है, कि कितनी बु(िमत्ता का इसमें प्रयोग किया गया है। बहुत बु(िमता से व्यवस्थित पृथ्वी बनी हुई है। किसी भी पेड़-पत्त्ते को देख लीजिए। वनस्पति शास्त्र पढ़िये। ऊँचे नीचे वृक्षों की रचना को देखिए, तो आपको पता चलेगा, कि कितनी व्यवस्थित है। शरीर विज्ञान पढ़िये। शरीर रचना को देखिए, कि वो कितनी व्यवस्थित है। नस, नाड़ियाँ, पाचन तंत्र, तंत्रिका तन्त्र आदि, सारे सिस्टम कितने व्यवस्थित हैं। इनमें जो इतनी व्यवस्था है- ...